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दादू दयाल का जीवन-चरित्र
॥ जन्म ससस हे
दादू दयाल का जन्म फागुन खुदी अष्टमी बृहस्पति यार विक्रमी सम्बत १६०१ के मुताबिक ईसवी सन् १५४४ के डुआ था अर्थात कबीर साद्दिव के गुप्त होने के छुम्ब्रीस बरस पीछे ।.हस मे सब की खम्पति है । ॥ जन्म रुचूव ॥॥
उनका जन्म खान दादु-पंथी गुजरात देश के अहमदाबाद नगर के बतलाते है और यही पंडित चन्द्रिका प्रसाद त्रिपाठी झोर पादरी जान दामस ने निर्णय किया है यद्यपि महामद्दोपाध्याय पंडित खुधाकर हछिवेदी ने उसे जोनपुर ठद्दराया है जो घनारल के विभाग का एक पुराना नगर है। कितनी हो घादेँ ऐसी हैँ लिनसे ज्ञान पड़ता है कि पं० सुधाकर जी का अज्ञुमान ठीक नहीं है. और दादु [साहिब अवश्य गुजरात देश के थे- जैसे उन की सारी और पदाँ की बोल चाल और मुझवरे जिन में गुजराती ढंग ओर लप्ज़ द्रसते हैं, और अनेक खुत्ची या खिचड़ी गुजराती भाषा के पद, ओर यह यात कि पूरबी बोली' जैसी कि कषीर साहिब रेदासजी भीजाजी वगैरह की याणी मे पाई जाती है दादु जी की बाणी से नहीं है। छा ॥ ज्ञाति ॥ ' दूसरा विषय मंगड़े का दादु दबाल की जाति है। दादू-पंथी उन को गुज- शा ती आाह्यय बतलाते है । पं० खुधाकरजी ने इनकों मोची लिखा है. ज्ञो मोठ बनाने का काम करते थे झोर संसारी नाम इनका मद्ाबल्ली बतला कर प्रमाय मे” यह साजी गुरुदेव के अंग के ३३ नंक्बर की दी है-- गा साचा समरथ गुर मिल्या, तिन सत दिया बताय | दादू मोट सहाबली, सब घृद सथि करि खाय ॥
[ग़शराती भाषा में मोद वा मोटा बड़े और श्रेष्ठ को कद्दते है ओर महावल्ी का अथ्थे संकृत में झति बलवान या पोढ़ा हैं] पादरी जान टांमस ने इन की जाति घुनिया लिप दे और ऐसा ही सर्व साधारण में प्रसिद्ध हैं। हम को इस बात के निश्चय करने का न तो अवसर है और न डसका आवश्यकता ज्ञान
२ जीवन-चरिध्र
जाति पाँति पूछे नहिं कोइ । हरि को भजे से! हरि का होइ ॥
जो आँख खेल कर देखा जावे तो विशेष कर पिछले संत और साथ जैसे कबीर साहिब रैदाल जी इत्यादि ; और भक्त जैसे वाल्मीक (डोमड़ा, श्री कष्णावतार के समय में) और दूसरे वाल्मीक (बद्देलिया, संस्कृत रामायण के अन्थ करता) और सदना (कसाई) ; और जोगेश्वर ज्ञानी जैसे नारंद ओर ब्यास आदि ने नीची द्वी जाति में जन्म लिया जिनकी कीत्ति का झडा आज तक संसार में फहरा रहा है ओर सदा फदरातां रहेगा।
च्ज्
दादू पंथी दादू द्याल के प्रगट होने का भेद इस तरह बतलांते हैँ कि पक् यापू में छुछ येगी भगवत भजन करते थे, उन में से एक है यागी को आकाश- बायणी हारा आजश। हुई कि तुम भारतवर्ष में' जाकर जीवोँ के चिताबो। इस आशा के अजुसार वह येगिरांज विचरते हुए जब अहमदाबाद में पहुँचे तो चहाँ लोदीराम नागर ब्राह्मण से भेंट हुई जिस के बेटे की बड़ी अभिलाषा थी; उसने येगी से बर माँगा कि हम को लड़का हो। येगी ने कद्दा कि बड़े तड़के सावरमती नदी फे तट पर जाव वहाँ तुम्दारी इच्छा पूरण दवेगी । जब लोदी- राम जी दूसरे दिन सवेरे वहाँ पहुँचे तो एक बच्चा नदी में बहता हुआ मिला जिसे लोदीराम निकाल कर घर त्ाये और पाला । (यद्द कथा कबीर साहिब की उत्पत्ति कथा से पूरी भाँति से मित्रती है जिन्हें काशी के लद्दरतारा नामके' तलांव में बहते हुए नीरू जुलादे ने पाया था और अपना बेटा बनाया) दादू पूंथियाँ का निश्चय है कि उन्हीं येगी जी ने योग बल से अपनी फाया बदल कर बच्चे का रूप घारण कर लिया और दादू द्याल बने, इसके प्रमाण मे थद्द साथी दादू जी की घतल।ते हँ--
सबद बेंधोना साह के, ता थें दादू आया। दुनियाँ जीवी बापुड़ी, सुख दरसन पाया॥ गा ॥ गुरू ॥
पंडित खुधाकर द्विवेदी जी ने त्रिखा है कि दादू जी के शुरू कमाल थे जो कबीर साददिब के मुख्य चेलाँ मे से थे और जिन को कितने लोग कबीर साहिब का बेदा वतलाते हैँ। दादू साहिब की वाणी में कहीं से उन के गुरू का नाम नहीं खुलता परंतु कबीर साहिब की उन्होंने जगह जगद् महिमा की है और कहीं कहीं साखियाँ भी कबीर साहिब की दी हैँ जिन्हें क्षेकक न कहना चाहिये, पर उन के कमाले के शिष्य होने का प्रमाण कही नहीं मित्वता। पं० छुधाकर जी
के अलुसार दादू नाम कमाल दा हो धरा हुआ है क्योंतक दादू जी छोटे बड़े सब फो “ दादा” पुकारा करते थे इस लिये कमा ३ जी छोटे दज़ जनगोपाल ने लिखा है कि दा
परम पुरुष ने एक बूढ़े साधू के
इस ल ने उन को नाम दादू रचखा । दू जी की अवस्था ग्यारद्द बरख की होने पर
भेष मे उन को दर्शन दिया जब कि दादू जी
ज्ञीवन-वरिति छ
लड़कों में खेल रहे थे और उन को पास का पक्क चीड़ा शिल्लाकर सस्वक पर हाथ धरा और परमार्थ का शुप्त भेद देना चाहा जिसे वाल बुद्धि से दादू जी ने न लिया , सात बर्ख पीछे बही बूढ़े दावा फिर मिले और दादू जी की बहिसुख दैत्ति को दया दृष्टि से अंतरशुसख कर के उपदेश दिया। डसी दिन से दांदू जी 'सगवत भजन मे तत्पर हो गये और इसी लिये जन गोपाल ने दादू साहिब के गुरू का मास 'छुद्ध वाया” लिखा है जो छुंदरदाल जी के लिखे हुए सास “चुद्धा- सन््द्” से मिलता है । पं० जगजीवन जी के लैस के अनुखार भी साक्षात परसे- श्यर ही दादू साहिब के गुरू थे और इस के प्रमाण में उन्हों ने यह साख्ी दाद लाहिब की दी है-- ह ह | दादू | गैब साहिं गुरदेव सिल्या | पाया हम परसाद | सस्तकि सेरे क्र धरया । हृष्या अगस अयथाघ॥| ॥ दयाक का बिशेषण ॥ दांदू जी का क्षमा ओर दया का अंग इतता चड़ा थां कि दाढ़ “दयात्व” के नाम से लोग उनको पुकारने लगे। इस के इश्ंन्त में कहा जाता है कि एक पार एक काज्ञी जिसकी गोष्ठी दाढू जी के साथ हो रहा थी ऐसा अुँकतल्ा उठा रे उन के सँदद एर छक घूँसा सारा परंतु दादू जी क्राघ करने के घदले बड़ी -अति से मुँह आगे ऋरके बोले कि साई एक शोर मार ले जिख पर काज़ी बहुत लज्ज्ित हुआ। ऐसे ही किसी समय में' वह समाधि मे बैठे थे, कुछ आह्यणो ने जो उन से घिरोष रखते थे उन को ई दा से घेर कर बंद कर दियां। जब उत्त की ऑल खुला तो निकत्नने का शस्ता न पाकर फिर ध्यान से बैठ गये छोर इस अचस्था में कई द्व तक रहे। अंत.को आस पास के सभ्य जनोँ को यद्द हाल मिला तो उन्होंने जाकर ई दा को हटाया और बदमाशों को दूंड देना चाहा एस द्याल जी ने यह् कह कर वरजा कि ऐसे लोग ज्विन की फरतूत से हमारा भगव॑त के चरणेंसे अधिक काल तक मेला रहा वह धन्यवाद पाने के योग्व हैँ न कि दंछ के ! ॥ अकबर शाह सहकारी ॥
दाढू साहिब का जीवन पूरा पूरा अ्रकंवर वादशाह के राज्य समय से था । अकबर के पैदा होने के एक वरस पीछे अर्थात् विक्रमी स्वत १६०१ में इन्हें! ने जन्म लिया और उस के भरने के दो बरस पहिले अर्थात् १६६० के ज्ेठ बदी अष्टमी शनिवार के अट्टादन बरल ढाई महीने को शबस्था में चोला छोड़ा । कहते हैँ कि खस्वत १६४२ में पड दयाल् को छुल्लाकात फतेहपुर सीक्षरो में अकवर शाह के साथ पदिले पहिल हुई जिस में! अकबर ने उन से सवाल किया कि ख़ुदा की ज़ात, अंग, वजूइ और रंग क्या है, इस एर दादू जी ने यह जवाब दिया-- ह
छे
, शीवन-चरितर
[ दादू ] इसक 'अलह की जाति है, इसक अलह का अंग । इसक अलह ओजूद है, इसक अलह का रंग॥ ( देखो विरद् अंग की साखी नं० १५२ प्रष्ठ 3४ ) ॥ रामत (देशाटन) ॥ रा दादू साह॑व के पहिले २४ बश्स का हाल नहीं मित्रता पर सम्बत १६३० में चद साँनर आये ओर वहाँ अनुमान छः वरस रहे | फिर आँवेर को गये जो जैपुर राज्य की पुरानी राजधानो थी और वद्दाँ चोद्ह बरस फे लगभग रदे। सस्बत १६५० से १६०४६ तक जैेपुर, मांरबाड़॥ वीकानेर आदि राक्योँ के अनेक स्थानों में बिचरते रहे ओर फिर सं० १६५६ में नराना में ज्ञो जैपुर से २० फेस पर है आकर ठद्दर गये। वहाँ से तीन चार कोस भराने की पद्दाड़ी है-- यहाँ भी दादू दयाल कुछ काल तक रहे और यद्दा खं० १६६० मे चोला छोड़ा इस लिये यह स्थान बहुत पुनोत समझा जाता है , चहुधा साधू घद्दाँ यात्रा को जाते है" ओर कितने साधुओं के फूल भो वहाँ गाड़े जाते है । ॥ भखाड़े || इस सम्प्रदाय के बावन प्रसिद्ध अज़ाड़े है कौर दर एक फा महंत अज्तर है। यह अखाड़े बिशेष कर जैवुर राज्य में हैं और कुछ अलवर, मारवाद घ मेवाड़, वीकानेर आदि राज्याँ से और पंजाब व गुजरात आदि देशों में है है कांशो में भी दादू पंथियाँ का एक अखाड़ा है। सब महंताँ के मुजिया नराना में रहते है जहाँ द।दू दुयाल ने अपने पिछले दिनोँ भें निवास किया था। | भेषों' के चिन्ह और रीति जौर रहनी || इस पंथ में दो प्रकार के साथू पाये जाते हैं एक भेषधारी बिरक्त जो गेरुआ बख् पहिनते है. और पठन पाठन कथा क्ीतेन जप भजन में अपना पूरा समय लगाते हैं ; दूसरे ;नागा जो सपेद खादे कपड़े पहिनते हैं और त्लेन देन खेती फौज की नोकरी बैध्यक आदि व्यौहार रुपया कमाने के लिये करते हैं । नामों की फौज्ञ जैवुर राज्य को मशहर है जिस में द्सहज़ार नागा से कम न होंगे । दोनोँ प्रकार के साथू ज्याद् नही करते, भहस्थों के लड़को के चेला मूड़ कर अपना बंस और पंथ चलाते हैं । ॥॒ दादु-पंथी साधू कबीर पंथियों को तरह न तो माथे पर तिशतक लगाते और न गले में कंठी पहनते पर प्रायः हाथ में खुसिरनी रखते हैं | यह लोग लिर पर दोपा या मुरायठ पहिनते हैं और आते जाते समय पक दूसरे से “सत्त राम कहते है । मुरदे के यह लोग चिता लगाकर जलां देते हैं पर यह चात्र नई तिकली है। प्राचीन रीति के अज्युसार मुरदे के। अरथी या विमान पर रख कर जंगल मे छोड़ आते थे जिस में पशु पंछी उस का अद्दार करें।द) इयाल ने इसरो चाद्ष के अपने उपदेश में उत्तम कद्दा है-- ई
जीवन-चरिष्ने
कि >>) हरि भज साफल जीवना, पर उपगार ससाइ-” मु दादू मरणा तहेँ भला, जहँ पशु पंछी खाइ ॥ साध सूर साहै” मैदाना । उत्तका नाही गोर मसाना | : ॥ झुख्य तीर्थ ॥
#राना. में जहाँ दादु-पंथियोँ की मुख्य गद्दी है एक दर्शेनीय मंदिर दांहू शा फे नाम का है। यहाँ दादू द्याल के रहने और बैठने के निशान अब तक जूद है और उनके पहिरने के कपड़े है” और पोधियाँ जिन की पूजा होती है ।
॥ मेरा ॥
नरानां भें फागुन छुदी से (जिस दिन दाद दयाल पहाँ पहिली बार
ये थे ) द्वादशी तक ने। दिन भारी मेला दर खाल होता है। ॥ इष्ट भौर मत शिक्षा ॥
दांदू साहिब कबीर साहिब की तरह निर्शुण के उपासक थे पर इन का इष्ठ प्रांड का धनी निरंजन मिराकार परमेश्वर था उसी के! सब में रमने घाला मे कद्द कर सुमिर्न भजन कराते थे। उन के मति की शिक्षा नीचे लिखे हुए षयोँ पर थो--
(१) परमेश्वर की महिमा ओर उसका सब्चिदानन्द खरूए । “०.) उसकी नि्गुय श्राराधना और अनन्य भक्ति । ) उसकी परम उपासना ओर उसका श्रजपा जाँप . भन केा परम रूप में स्थिर करने के साधन । परम रूप का ध्यान और घरणा और समाधि । . प्नहद् बाजे का श्रवण ओर उसमें मश्न होना । अमृत विठु का पात और परमानंद की प्रीति। | परमेश्वर से अरल परख मिलाप-न्रह्म का साक्षातकार | ु ॥ ससाज संशोधन ॥ याल केवल परमार्थी शित्षक न थे बरन खंसारी चाल ब्यवद्यत्और भी उन््दोंने बहुत सुधार किया। ॥ चमत्कार ॥ . लिक्षा है कि एक साल दादू दयाल आँधी नामक गाँव में चैमाले की धक्तु थे जहाँ वर्षा न होने के कारण जीवों के अति बिकल देखकर उन की माँग ( भगवंत से प्रार्थना करके दादू जी ने जल वश्साया और अकाल के दूर ध्या, इसके प्रमाण मे यह साखी बतलाते है” [ देखो पृष्ठ ७१, बिरह अंग की ७ थी साखी ] हु
आशा अपरंपार की, बसि अंबर भरतार । हरे पटम्ंधर पहिरि करि, घरतो करता करे किंगार |...“
जीवन-चरिश्र
॥ बहु भाषा वोच ॥ ( !
दांदु दयाल छुछ विशेष पढ़े लिखे व थे यद्यपि उन की साखियाँ और पे
में” अनेक भाषाओं के शब्द मिक्तते हैं शोर कितनी ही साखी और ए दे फारसी में है | झुज॒राती ते उन की मातू भाषा थी ही और मारबार | ४ बहुत काल तक रहे थे से वहाँ की भाषाओं का जानना शचरज नहीं ह पर उन की बाणी से पंजाबी सिंधी, मरहठी और बज भाषा की सी अच्छी जानकारी पाई जाती है। जहाँ जहाँ ऐसे शब्द आये हैं उन के अर्थ भर मक्ूदर तहकोकात करके ने(ट में दे दिये गये है । दादू साहब ने अपनी वाणी कर्मी अपने छाथ से नहीं लिखी, उन के पास रहने वाले शिष्य जो छुछ उन के सुख से निकलता!
था खिल लिया करते थे। ॥॒ ॥ संपादक की सूचना ॥
इस पुस्तक के दस ने दे। भाचोच लिपियाँ से छापा है-एक तेः हम के। बाबू सत्यवारायण प्रसाद जी स्वर्ग पारी काशी शज के तहसीलदार ने झलुमान दस बरस हुए दी थी ओर दूसरी मास्टर बनवारीतलांल जी प्रयाग निवासी से मिली इस लिये हम इस दोनों सहाश्यों के अनेक धन्यबाद देते हैं । इन दे सिवाय तीन पुस्तकें काशी, लाहै।र ओर अजमेर के छापे की दम को मिलीं जिर में से पहिली दो तो बहुत ही अशुद्ध थीं परंतु तीसरी पंडित चंद्रिका खाद , की छापी हुई पुस्तक से (यद्यपि कितने एक सुथाव में उस के पाठ और दीका से हम ने सम्पति नहीं की है) अधिक सद्दायता मिली जिस' के लिये उत्त के। भी धब्यवाद देते है । जीवन-चशित्र के लिखने में हम. के उन वे एक लेख से जो 'अथम हिन्दों खाद्दित्य सस्मेलब” पत्रिका मे छुपा था बहुत मदद मिली । हम दादू दुयाल को वाणी के दे। भांग में! छाप रहे है क्योंकि पद्विले तो साखियोँ का पदोँ से अलग रखना जब कि हर एक की संख्या बड़ी है उचित जान पड़ता है, दुसरे इस रीति से पढ़ने बालों के भी हर तरह का खुबोता होगा । | /॥/॥«& थोड़ी सी साखियाँ ऐसी है जो दुसरे अंग से दुदयई हुई हैं परन्तु जो यह ढंग सबे हस्तनलिखित और छुपी पुस्तकों में! पाया गया इस लिये हम ने भी उसी अजुसार इस पुस्तक में रबजा है अर्थात जहाँ किसी एक अंग में आई हुईं खाज़ी फिर दुसरे अंग मे दी है वहाँ पाहले में अंग का और डख साखी का नम्बर ( त्ाकट ) में दे दिया है--जैसे “परचा” के अंग नं० ७ की साखियाँ १४५ व १४६ बद्दी है. जो विरद् अंग नं० ३ के नं० ७० और ६ में आजुकी थीं इस लिये जहाँ वह कड़ियों देहराई गई दैं/ अर्थात चौथे अंग्र के (४० वीं साख़ी के सामने (२०४०) और १४६ वीं के आगे (३-६६) छाप दिया बया है-- उसे। पछ ६१ ॥
दाद दयाल की बानी भाग १-साखी
१-गुरुदेव को अंग
॥ बंदना ॥ दादू नमे। नमे। निरंजन, नमस्कार गुर देवतः झंदर सब साथवा, प्रणाम पारगस: 0 १॥ --. परभ्रल्ल परापरं* , से। सस देव निरंजन । निराकारं निर्मल, तस्य दादू बन्दनं ॥ २ ॥ ॥ गुरू महिमा ॥ [दादू] गेब माहि गुरदेव मिल्या, पाया हम परसाद् मस्तक मेरे कर घरण्मा, देख्या अगस अगाधथ 0 ३॥ द'दू सतगुंर सहज से, कीया बहु उपगाररे । निरचन घनवेस करि लिया, ग्र मिलिया दातार ॥ | [दादू] सतगुर सें सहज मिल्या, लोया कंठ लगाह । दाया महे दघाल की, सब दीपक दिया जगाह ॥ दादू देव दुयाल को, गरू दिखाहे बाट । ताला कँची लाइ करि, खेले सबे कपाठ ॥ ६ ॥ [दादू] सतगुर अंजन बाहि करि, नेन पटल सब खेर :बहरे काना सुणने लागे, गंगे मुख स बेले ॥ ७ ॥ १ माया देश के पार पहुँचे हुए ।२ कारण भांव से परे । ६ ढपकार।
वलमबाम......
३ शुरुदेव को अंग
सतगर दाता जीव का, सत्वन सोीस कर नेन ।
सन सन सौँज संवोरि सब, मुख रसना झरू बेन ॥
राम नाम उपदेस करि, अगमस गवन यह सेन ।
दादू सतगुर सब दिया, आप मिलाये ऐन 0 < ॥
सतगुर कीया फेरि. करि, मन का ओरे रूप ।
दादू पंचाँ| पलटि करि, केसे भये अनूप ॥ १० ॥
साचा सतगर जे मिले, सब साज संवारे।
दादू नाव चढ़ाइ करि, ले पार उतारे ॥ ११॥
[दादू] ससगुर पसु मांणस* करे, माणस थ* खिघ से;
दाद सिच थे देवता, देव निरंजन हाह ॥ ९१२४:
दादू काढ़े काल मुख, अ्रँघे लेशचन देह ।
दादू ऐसा गुर मिल्या, जीव ब्रह्म करि लेह ॥ १३ ॥
दादू के छाल मुख, लब॒नहुं सब्द सुनाह ।
दादू ऐसा गुर सिल्या, मिरतक लिये जिलाह ॥ १४ ।
दादू काढ़े काल मुख, गेंगे लिये बेलाड ।
दादू ऐसा गुर मिल्या, सुख में रहे समाह ॥ १४ ॥
दादू काढ़े काल मुख, मिहर दया करि आाहु ।
ददू ऐसा गुर मिल्या, सहिसा कही न जाई ॥ १६ ॥
ससगर काढे केस गहि, डखत इृहि संसार । ४
दादू नाव चढ़ाइ करि, कोये पैली पाररे 0९७ ॥
प्रवसांगर म॑ डबताँ, सतगुर काढ़े आइ ।
दादू खेबट गुर मिल्या, लीथे नाव चढ़ाइ ॥ ९८ ॥
दादू उस गुरदेव को, स बलिहारी जाडें।
जहँ सासण अमर अलेख था, ले राखे उस ठाउे ॥:४ .... $< शशक्ष्य। श्से।इपन्नो पार. "7:
शुरुदेस को अंग - ॥ आऑस्म बोध ॥ ४ आतम माह ऊंपजै, दादू पंगुल ज्ञान । किरतिम' जादह उलंधि करि, जहाँ निरंजन थान॑ । आतम बाध बंध का बेटा, गुरसुख उपजे आह दादू पंगुल पंच बिन, जहाँ राम तहेँ जाइ ॥ २१ 0 ॥ अनदृद शब्द ॥ - साथा सहज ले मिले, सबद गुरू का ज्ञान -। दादू हम कूँ ले चल्या, जहूँ प्रोतम (का) अस्थान ॥ दादू सबद बिचारि करि, लागि रहे मन लाइ ' ज्ञान गहे गुरदेव का, दएदू सहजि समाइ ॥ २३ 0 [दादू कहै] सतगुर सबद सुणाई करि, भावे जोब जः पावै अंतर आप कहि, ऊँपने अंग लगाई ॥ २४ ॥ [दादू] बाहर सारा देखिये, भीतर कोया चूर । सतगुर सबदोँ मारिया, जाण न पाते दूर ॥ २४ । [दादू] सतगुर मारे सबद् साँ, निरखिं निरखि निज उम अकेला रहे गया, चोतो न आवबे और हा दादू हम फूँ खुख मया, साथ सबद झुए झगग सुथि बुचि सेधो समक्कि करि, पाया पद् निरबाण [दादू) सघद् बान गुर साथि के, दूरि दिसंतरि ज ज्ेहि लागे से ऊबरे, सूते लिये जगाह ॥ २८ 0 सतगुर सबद मुख साँ कह्या, क्या नेड़े क््य। दूर । />बाढू सिष खबनहुं सुस्या, ई मं रबनहुं सुग्या, सुमिरण ढागा सूर ॥ ६ ' १ क्जिम । २ धाँस | दे खिंत्त । ह
४ गुर्देव को हांग
॥ करनी ॥ सथद दूघ घृत रास रस, सथि करि कादे केाह । ढ दादू गुर गेाबिंद बिन, घट घट समक्ति न हाइ ॥ ३० ॥ सबद् दूध छूत रास रस, केाह साथ बविलेवणहार । दादू अमृत काढ़ि ले, गुरमुखि गहे बिचार ॥ ३१ ॥. घीव दूध में रमि रह्या, व्यापक सबहो ठौर । दादू बकसा बहुस है, मधि काढ़े ते और ॥ ३२१ कामचेनु घट चौव है, दिन दिन दुर्बल हाह । गे।र! ज्ञान न ऊपजे, मणि नहें खाया सह ॥ ३३१ ॥ साथा समरथ गुर मिल्या, लिन तस दिया बताह । दादू माट महा बलो, चट चूस मथि करि खाद 0 ३४ 0 मथि करि दीपक कीजिये, सब घठ भया प्रकास | दादू दीयारे हाथ करि, गया निरंजन पास ॥ ३४७ दीसें। दीया कीजिये, गुरसुख सारण जाहु । दादू अपणे पीव का, द्रसण देखे आह ॥ ३६ ॥ दादू दीयाने है भरा, दिया करे! सब काह । घर में घस्या न पाइये, जे कर दिया न हाह ॥ ३७ ॥: [दादू] दीये आओ । गुण ते लह१ , दीया मे।दी* बात । दीया जग में चाँदना, दीया चाले साथ 0 ३५ ॥ निर्मेल गुर का ज्ञान गहि, निरमेल भगति थिचार-। निर्मेल पाया प्रेम रस, छूदे सकछ बिकार ॥ ३६ ॥ लनिर्मेह सन सन ऊातसा, निर्मेल मनसा सार । निर्मल प्राणी पंच करि, दादू लंचे पार ॥ ४० ॥
+पुज्ञाव। २ बड़ा। ३ “दीया” या दीवा चिराग को कहते है जिस कई अभिप्राय “शान” है, भर साली ३७ व ३८ में “दान” का भी झलंकार है । ४ ले ।५ बड़ी । हि
शुरुदेव को अंग भू परा परी पास रहे, कोई न जाणे ताहि । सतगर दिया दिखाह करि, दादू रह्या ल्थौ! लांइ ॥४९६५ ॥ जिन्नासा ॥ प्रशन--जिन हम सिरजे' से! कहा, सतगर देह दिखाह ' उत्तर-दादू दिल अरवाहरे का, तहूँ मालिक ल्यो' लाइ ॥४२१. मझ ही में मेरा घणी, पड़दा खे।लि दिखाई । आतम से परआत्मा, परगट आणि मिलाहु ॥8३॥ -भरि भरि प्याला प्रेम रस, अपणे हाथ पिलाह । सतगर के सदिके* क्रिया, दादू बलि बलि जाइ ॥9४॥ सरव॒र भरिया द॒ह दिसा, पंखोी* प्यांसा जाहु। दादू गुर परसाद बिन, क्येँ जल पोवे आह ४४४७ मानसरावर माहि जल, प्यासा पीबे आह । ' दादू देस न दीजिये, घर चर कहुण न जाह ॥४६॥ ॥ गुरु लत्तरु ॥ दाहू गुर गर॒ुवा" मिले, ता थें सब गमि होइ । लेहा पारस परसता, सहज समाना सेहं ॥ ४७० ॥ दीन गरीबी गहि रह्या, गरूबा गर गंभोर । सूचिमः सोतल सुरति मति, सहज दया गर घोर ॥४६८॥ साथी दाता पलक म॑, तिरे। सिराबन जाग । दादू ऐसा परम गुर, पाया केहि संजेग ॥ ४६ ॥ _[दादू ] सतगुर ऐसा कोजिये, रास रस्स माता । पार उतारे पलक मे, दरसन का दाता ॥ ४० ॥
... १ लो। २ पैद। किया। ३ “अरवाह” वहुबचन अरबों शब्द “झुह” का है जिध्त का अ्थे जीवासमा है--मालमे-अरवाद अद्यांड को कहते हैँ। ४ परमारमा | ५. निद्याबर | ५ पको | ७ भारी, पूरा । ० घदम । & तारे ।
६ शुर्ददेव को अंग
देवे किरका' दरद का, टूटा जे।ड़े तार । दाढ़ू साथे सुरति के, से! गुर पीर हमार ॥ ४९ ॥ दादू चाइल हें रहे, सतगुर के सारे । दादू अंग लगाइ करि, भवसागर सारे ॥ ४२ ॥ दाठू साथा गुर सिल्था, साचा दिया दिखाह। साचे के साचा सिल्य।, साचा रह्या समाह ॥ ४३ ॥ सांचा खतगर सेथि ले, सोचे लीजे साथ । साथा साहिल सेलथि करि, दाद भगत्ति अगाघ ॥ ४७ ॥ सनसुख खतगर खाधथ हे, खाई से रांता। दादू प्याला प्रेम का, महा रस्सि माता ॥ ४५ ॥४ साइ स् साचा रहे, सतगुर से सूरा। साध्र सूँ सनमुख रहे, से दादू पूरा ॥ ४६ ॥ सतगर भिले तो पाहये, समगृति सकति भंडार । दादू सहज देखिये, साहिब का दोदार ॥,४७ ॥ ्े [दादू] साई सत्तगुर सेविये, मगूति मुकृति फल होह । अमर अभय पद् पाइय्रे, काल न लागे केाह ॥ ४८ ॥ ॥ गुरू बिन कान नहीं ॥
हुक लख चंदा आणि घर, सूरज केाटि मिलाई । . द्ादू गुर गाबिंद बिन, तो भो तिमर न जाह ॥ ४९ ॥ अनेक चंद उदय करे, असंख सुर परकास | एक निरंजन नॉँव बिन, दादू नहीं उजाख ॥ ६० ॥ [दादू] कदि यहु आपा जाइगा, कि यहु बिसरे और । कदिं यहुं सुंषिम हे।इगा, कदि यहु पाबे ढौर ॥ ६९१ ॥
.. श१कििका|। . -
'शुद् देव को् अंग |
[दादू |] बिषम दुहेला जीव क्, सतगुर भर अआसातल । जय दरवे तब पांइये, नेड़ा ही जस्थान + ६२ ॥ ॥ गुरु शान ॥ ु [ददू] नैन न देखें नेन कूँ, अंलर भी कुछ नाहि । सतगुर द्रपन करि दिया, अरस परस मिलि माहि ॥ घट घट रामहि रतन है, दादू लखे न कोइ । सतगुर संबदाँ पाइये, संहजे ही गम होंइ ॥ ६९ ॥ जयहीं कर दीपक दिया, तब सब सूझ्तन लाग़ | : . यूँ दादू गुर ज्ञान थे, राम कहते जन ज्ञाग-0 ६५ ॥ ॥ अजपा जाप॥ |
_[दादू] मन माला रहें फेरिये, जहँ दिवस न परसे रा तहाँ गुरू ब्ाना दिया, सहजें जपिये त्तात-॥ ६६ ॥. [दादू] मन माला तहँ फेरिये, जहें प्रीसम बैठे पास अगस गुरू थे गस भया, णाया नूर निवास ५ ६१ ६ [दादू] मन माला तहें फ़ेरिये, जहँ आपे एक अनंत सहजें से। ससगुर मिल्या, जुग जुग फाग बसंत ॥ ६! [दादू ] ससगुर माला मन दिया, पवन सुरति सूँ थे। बिन हाथों निस दिन जपै, परम जाप यूँ हाह ॥ ६९ [दादू] मन फकोर माह हुआ, भीतर लोया भेख | सब॒द गहै.गुरदेव का, माँगे भोख अलेख॥ ५०, ॥ [दादू | मन फकोर रूतगुर किया, कहि समभ्काया ज्ञा निहठचल आसणि बैसि करि, अकल' पुरुस का ध्यान ॥
गुरदेथ को अंग
[दादू ] मन फकीर जग थ रहा, सतगुर लठीया लाइ अहि निसि लागा एक सू, सहज सुन्त रस खाइ ॥०२ [दादू] मन फकोर ऐसे भया, सत्तगुर के परसाद । जहूँ का था लागा तहाँ, छूटे बाद बिद्याद ॥ ०३ ॥ ना चरि रहा न बन गया, ना कुछ किया कलेस । दादू मन हीं मन मिल्या, सतगुर के उपदेस ॥ ७३ ५ [दादू] यहु मसीत' यहु देहुरा* , ससंगुर दिया दिखाह़ भीतरि सेवा बंदगी, बाहरि काहे जाहु ॥ ७३ ॥ (दादू] मंझेे चेला मंक्ति गुर, मंस्ते ही उपदेस । बघाहरि दढँढे बावरे, जठा बेंचाये केस ॥ ७६ ॥ ॥ भरमो मन का दमन ॥ सन का सस्तक सडिये, काम क्रोच के केस । दादू बिषे लिकार सब, सतगुर के उपदेख ॥ ७७ ॥ दादू पड़दा मरम का, रहा सकल चटि छाइ गरु गाबिंद किरपा कर, ता सहज हों मिटि जाहु ॥» ॥ सूदम मार्ग ॥
(दादू | जेहि मति साधश्च् ऊघरे, से। ससि लीया से।च मन ले मारग मूल गहि, यहु सतगुर का परभेध ॥७६ [दाद] सेई मारग मन गह्य॒, जेहिं मारग मिलिये जाइ बेद करान ना कह्या, से गुर दिया दिखाई ॥ ८६० ॥
॥ जीव की पेबसी--मन के रोकने का ऊतन गुरु-छरन ॥ सन भुवंग यह बिष भस्था, तिरबिष क्योंहि न हाइ। दादू मिलया गुर गारुड़ीरे , निरबिष कौया सेह ॥ ८१
है
गुरुदैध के अंग. बोर हे 6 एसा कीजे आप थ, तन मन 'डउनमुनि लाइ ।
५ पंच समाधी राखिये, दूजा सहज सुभाइ ॥ ८२ ॥
र्र
भर"
[दाद] जीव जेजाले पड़ि गया, डलभथा नौ मण केह इक सुलके सावधान, गुर बायक' अवध्ुत* ॥ चंचल चहेँ दिसि जात है, गर बायक' से बंधि। दाद संगांस साथ को, पारतग्रल्म थे सांधरे ॥ ८७ ॥ गर शंकुस माणे नहीं,उहुमत४ माता छांच ।
दादू मन चेते नहीं, काल न देखे फंच ॥ ८४ ॥ [दांदू] माश्याँ बिन साने नहीं, यह सन हरि को आ- ज्ञान खड़ग गरदेव का, ता सेंग संदा सुजान ॥ ८६ जहाँ थे मन उठि चले, फेर तहाँ ही राखि ।
सहँ दाढहु लख लोन फरि, साथ कहें गर साखि ॥ [दाद] मनहीं से सल ऊपजे, मन हीं सं घमल थे सीख चले गर साथ को, ती ते निर्मेल हाहु ॥ ८ [दादू ] कच्छिन्र अपने करे लिये, मन इन्द्रो निज नॉ३९ निरंजन लागि रह; प्राणी परिहरिष और ॥ ६८ मन के मते सब कोइ खेले, गरमख जबिरला काह । दाढू मन को माने नहीं, सतगुर का सिष सेह ॥ ' सथ् जीवन के मन ठगे, सन के बिरला कोइ | - दादू गुर के ज्ञान से, साईं सनमुख हाह ४ ९१ ॥ ([दादू | एक सं लबलीन हुणाँ, सबे सयानप येह । सतगर साध कहल है; परम तत्त जपि लेह ॥ २ ॥
हे बायक - वाक्य । २ त्यागी, नागा। .३ मेज्ञा। ४ फ्रोप्ो। ५ मतर ६ कछुधा । ७ नाम । ८ त्यांग कर।
१२ गुरुदेव के अंग
सलगर को खमक नहीं, झरपणे उपजे नाहिं । लो दादू क्या कीजिये, बुरी त्रिया सन साहि ॥ ११४ ।
॥ अनाड़ी ओर पाणंडी गुरू ॥
जर अपंग पग पंख बिन, सिष साखा का भार । दादू खेवट नाव बिन, क्यूं उत्तरगे पार ॥ ११४ ॥ दादू संसा जीव का, सिष साखा का साल । देनों के भारी पड़ी, हैगा कीण हवाल ॥ ११६॥ * अंधे अंचा मिर्छि चले, दादू बंधि कपवार ।
कप पड़े हम देखता, अंधे झंचा लार ॥ ११७ ॥ सेथी नहीं सरोर की, ओरोँ के उपदेस ।
दादू अचरज देखिया, ये जाहिंगे छिस देव ॥ ११८ ॥
[दाढू] सदी नहीं सरोर को, कह अगम को बात ।
जान कहाव बापड़े, आवध लीये हाथ ॥ १९6 ॥
[दादू) लाया माह कांढ़ि करि, फिरि माया में दीन्ह
देऊ जन समझे नहीं, एकी काजःन कोनह ॥ १४० ॥
[ददू] कहे से! सुर किस कास का, गहि सरसावे आन
तस बताबे निर्मेला, से।. गुर साथ सुजान १ १२१ ॥
तू मेरा हूँ लेंरा, गुर रिष कोया संत्त ।
दानों भूले जात है, दाढू बिसस्था कंत ॥ १९२ ५
दुहि दुहि पीवे उज्वाल गुर, सिंष है छेछीर गाह ।
यहु अवसर ह्य हाँ गया, दादू कहि समझा ॥ १२३
सिणष गेारू गुर उबाल है, रच्छा करि करि लेहु ।
दाद रखे जलन कार, -आअआा।ण चणी कक द्वेठ | प्रा श्द्वर् १ बेचारे अपने को खुजान कहते हैँ पर मौत की ख़बर नदी
गुरुदेव के! अंग
फूट अंचे गुर घने, मरम दिढ़ाव आई । . दादू साथा गुर मिले, जोब ब्रह्म है जाइ ॥ ९२४ ॥ 'फूठे अंधे गुर घणे, बंधे बिषय बिकार |... दादू साचा गुर मिले, सनमुख सिरजनहार ॥ १२६ । फूठे अंचे गर घणे, भरम दिढ़ावे काह | बंधे माया मेह झों, दाद मर से राम ॥ १९२० ४
द फूंठे अंधे गुर घणे, मठके घर चर बारि ). . कारज के। सीमै नहीं, दाद माथे मारि ॥ १२८ ॥
[दादू] भगत -कहावें आप कूँ, भगति न जाणे से: सपने हों समझे नहों, कहाँ बसे गरदेव ॥ १२८ ॥ हि .. ॥ कर्म भर्म का निषेध... .. भरम करम जग बंधिया, पंडित दिया प्ललाइ । दादू सत्तगुर ना मिले, मारणम देह दिखाई ॥ १३० ॥ [दादू] पंथ बतावे पाप का, भ्रम करम, बेसांस | निकट निरंजन जे रहे, क्येँ न. बतावे तास ॥ १३१
- दाँंदू आपा जरभके उरक्किया,,दीस सब संसार । आपा सुरभ्कत सुराक्तेया, यहु गुर ज्ञान बिचार ॥ १३ ॥ गुरुमुख कसौटी ॥
सांचु का अंग निमेला, ता में सल. न समाह । शा
परम गुरू /परगट कहे, ता थें दादू ताइ ॥ १३३.॥ ४ जज ॥खुमिरन के - ०“ : . * राम नाम गर सश्द् सा, रे सन पेल .भरम.॥
टड्--- सै मन मिल्या दांदू कादि करम ॥ १३
१ विश्वास ।
ल्ह्छ 'शंगदेव के अंग ,.. ॥ सूदम मांगे ॥ ि [दादू ] बिन्न पाइन का पंथ है, क्यों करि पहुँचे प्राण। बिकट चाट औषठ खरे, साहिं सिखर-असमान-+॥ १३४-॥ मन ताजी! चेतन चढ़े, छथी* की करे लगास । सखद गुरू का ताजणाँरे , केइ पहुँचे साथ सुज्ञान ॥१३६" .. ॥स्वार्थी परमार्थी॥ ््ि
साथों सुमिरण से। कह्या, [जेहि] सुमिरण आपा भूल* । दादू गहि गम्भोर गुर, चेतन आरनेद सूल ॥ १३० ॥ [दादू |] आप सुवार्य सब्च सगे, प्राण सनेहो नाहि। . प्राण सनेही राम है, के साधू कलि माहि ॥ १३८ ॥/ सुख का साथो जगत सब, दुख का नाहों कह ।
ख का साथी साइयाँ, दादू सतगुर हाइ ॥ १३८ ॥ सगे हमारे साथ है, सिर पर सिरजनहार । दादू सुतगुर से सगा, दूजा चुंच बिकार ॥ १४० 0 दादू के दूजा नहीं, एक आतस रास । हि सतगुंर सिर 'पर साथ सब, प्रेम भगति बिसरास ॥१४१'
॥ शुरू अऋ्ंगी ॥।
दाठू सुधि बुचि आतम्रा, सतगुर परसे आइ-। दादू भंगी कीट ज्यों! देखत है। है जाइ ॥ १४२ ॥ दादू झूंगो कीट ज्यों, सतगुर सेवी हा । आप सरीखे करि लिंये, दूजा नाहीं केाइ ॥ १४३ ॥ [दादू' कच्छिब्न राखे दृष्टि में, कुजाँ के मन साहि। | सतगुर राखे आपण्णों, दूजा काई नाहि ॥ १४४ ॥
रघोड़ा। रलो | इकोड़ा । »खुमिस्न उस का नांम है जिस से आपा का नाश हो । ५ कछुचा अपने बच्चों के दृष्टि सेऔर कुंज चिड़िया खुरति से पाती है।
शुरुदेव को अंग:
धर्चा के माता पिसा,-दूजा नाहों काइव- दाद निपजे भाव से, सलगर के. घंट हा।हु ॥ ९४४ | भरोसा #.. गा एके सबद अनंत सिषे, जब सेतेंगंर बोलें । - रे दादू जड़े कंपाट सब, दे केची खेले ॥ १४६ ॥ बिनही कीथा हा।हु सब, सनसुख सिरज्ञनहारंत दाहू करि करि की मरे, सिष -सांखा सिर भार ॥ ९६ सूरज सनमुख आरसो, पावक किया मांस । दादू सांहे साथ बिच, सहजे निपजे:दाख ४ २४८ ४ .. ॥ सन इंख्ददी निम्रद॥ छाद| पता ये परमेषि ले, इन-ही के उपदेस । यह सन अपणा हाथें करे, ते चेला सब.-देस ॥ ९४ असर भये ग्र ज्ञान से, केतें यहि कलि माहिं। दादूं गुर के ज्ञान खिन, केते सरि मरि जाहि ॥ २४ औषधि खाहू न पछ्ि' रहै, बिषमत ब्याथि' क्यों हु। दादू रोगी बावरी, देश बेद कूँ लाह ॥ ९४९ ४ लेद बिथा कहे देखि करि, रोगो रहे रिश्वा्ट । मन माहीँ लोये रहै, दादू ब्याधि, न. जाहु.0 १४२ ॥ [ददू | बैठ बिचारा क्या करे, रोगी रहे न साच । खाटा सोठा चरपरा, साँगे मेरा बाचरे ॥ १४५३ ४ ॥ शुरू उपदेश ॥
दुलभ दरसन साथ का, दुलेभ गुर उपदेस । दुलेभ कारेबा कऋ्धिन है, दुलम परस अलेख ॥ १४९
.._ १ पथ ले, परदेज़ के साथ | २ भारी रोध | ३ बच्चा। । ३
१६ शुरुदैय के हर्ग [दादू |] अबिचल मंत्र असर मंत्र अछस मंत्र, अभय मंत्र राख मंत्र निज्ञ सार। सजीवल मंत्र सचीरज अंज्न रूदर संत्र, सिरोमणि मंत्र निर्मल मंतज्ञ निराकार ॥
अलख संज्न अक्कल मंत्र अगाण घंत्र अपार मंत्र, अंत मंत्र राया ।
नूर भंत्र तेज मंत्र जासि मंत्र प्रकास मंत्र, परम मन्न पाया । डउपदेखस दष्या' दादू गर राया ॥ १४४ ॥ दादू सब हो गुर किये, प॒ण्ुु पंखो _जनराय । तीन लेक गुण पंच से, सब हो भाहि खुदाह ॥ जे पहली सतगर कह्या, से नैनह देख्या आह । अरस परस लि एक रख, दादू रहे समाह ॥ ९
गे
१ गुर दीक्षा। साखो १५५ में जो मंत्रों के नाम लिखे हैं बह भगवंत के शुण-बायक हैं । ह
खुमिरन को अंग २--सुमिरन को अंग
हे ॥ बंदना ॥
_[दादू] नभे। नभे। निरंजन, नमरकार गुरदेवतः । बंदन सर्व साथवा, प्रणाम पारंगतः 0 १७
एके अच्छर पीबर का, सेई सतकरि जाणि।
राम नाम सतगुर कह्या, दादू सो परवाणि* ॥ २॥ पहली सत्रवन दुती रसन, हतिये हिरदे गाह ।
चतुर्दसी चिंतन मया, तब रोध् रोम ल्यी लाइ ॥ हि ॥ चाम महिमा ॥ दादू नीका नाव है, तीन लोक तत सार ।
राति दिवस रटियो करी, रे मन इहे बिचार ॥ ९ : द्रादू नीका नाव है, हरि ह्र्दि शत बिसारि ।
मूरते मन साह बसे, साँस साख सेसारि ॥ ५ ॥ साँसे साँस सेमालता, हक दिन मिलिहे आह । सुमिरण पेंड़ा सहज का, सतगुर दिया बताइ ॥६॥ ' दादू नीका नाँव है, से तू हिरदे राखि । परखंड परपेंच दूर करि, सुनि साध जन की साखि ॥०॥ दादू नीका नाँव है, आप कहे समभ्काह । आर आरंभरे सब छाड़ि दे, राम नाम ल्ये। लाह ॥८॥ राम भजन का सेच कया, करता होइसे होड। दादू राम संसालिये, फिरि बूक्तिये न काह ॥ € ॥ रोम तुम्हारे नाँव बिन, जे मुख निकसे ओर । ते। इस अपराधी जीव के, सीन लेक कत डै।र ॥१० छिन छिन राम संमभालताँ, जे जिव ज़ाइ त जाउ । अआतम के आधार काँ, नाहीं जान उपाड ॥ ११॥
१ प्रमाण । २ ब्र० बि० प्र० पुस्तक मे चेतनि” है। इ नया काम।.._
१ झुमिरन को अंग
एक महूरत मन रहे, नाँव निरंजन पास ।
दादू तब हीं देखताँ, सकल करन का नास ॥ १२॥
सहजे हीं सब होड़ गा, गुण इन्द्रो का नास ।
दादू राम सेभालताँ, कहें करम के पास ॥ १३ ॥
राम नास गुर सबद सौँ, रे सन पेलि सरस ।
निहकरमी से मन मिल्णा, ददू कादि करमस ॥ ९७ ॥
एक राम के नाव बिन, जित को जरनि न जाह।
दांदू केते पचि मुए, करि करि बहुत उपाहु ॥ १४ ॥
एक राम को ठेक गहि, दूजा सहज सुभाह ।*
राम नाम छाड़े नहीं, दूजा आवबे ज्ञाइ ॥ ९६ ॥
दादहू राम अगाघ है, परिमित नाहीं पार
अबरण बरण न जांणिये, दादू ना अचार ॥ १७ ७
दादू राम अगाघ है, अबिशत लखे न केाइ ।
निगुंण सगण का कहै, नह बिलंबनरे हे।ईह ४ १८ ॥
दादू राम अगांध है, बेहद् लख्या न जाइ ।
आदि झ्ंत नहिं जाणिये, नाँव निरंतर गाहु ॥ १८ ४
दादू राम अगाध है, अकल अगेाचर एक । है
दांदू नाँइ' बिलंबिये, साध्नू कहें अनेक ॥ २० ॥
[दादू] एके अल्लह राम है, समरथ साहं सेह ।
मैदे के पकवा: _ हाइ से। हाह ॥ २१ ॥
सर्मण नि_ ्ि। '
हरि सु्मारि कोन्ह ॥ २२॥ * ॥
डा अ-
'खुमिसरन फो अंग १& दादू सिरजनहार के, केते नाव अनंत । द चित आंबे से लोजिये, यों साथ समिर संत ॥ २३.॥
[दाढू] जिन प्रान पिंह हम के दिया, अंतरि सेत्रें ताहि। जे आवबे ओसान सिरि, सेईं नॉव सेंबाहि' ४२४
॥ चितावनी ॥
[दादू] ऐसा कोण अभागिया; कद दिढ़ावे और ।
नाँव बिना पम घरन के, कहा कहाँ है और ॥२४ ॥ [दादू] निमिष न न््यारा कोजिये, अंतर थें उरि नाम । केाटि पसित पावन भषे, केवल कहता राम ॥ ६ 0 [दाद] जे ,त अब जाण्या नहीं, राम नाम निजञ्ञ सार-। -फिरि पीछे परछिताहिगा, रे मन मूढ़ गँवार ॥-२७:॥ दादू राम सेंभालि ले, जब लग सुखी सरीर । । फिरि पीछे पछिताहिगा, जब्न तन मन घरै न घीर ॥र८॥ दुख दरिया संसार है, सुख का सागर रास ।
सुख सागर चलि ज्ञाइये, दाद तज़ि बेकाम ॥ २६ 0४ [दाद] दरिया यहु संसार है, राम नाम निज नाव। दादू ढील न कौजिये, यहु अवसर यहु डाबर* ॥ ३०:॥ 'मेरे संसा का नहीं, जीवल मरन का रास ।
सुपिन हीं जिनि बोसरे, मुख हिरदे हरि नाप्त ॥ ३१ ॥ दादू दुखिया तब लगे, जब लग नाँव न लेहि।
तब हो पावन परम सुख, मेरी जीवन येहि ॥ ३२ ॥ कछु न कहाबे आप कूँर , साई के सेब ।
दाद दज्ा छाड़ि सबं, नॉव निज लेबे ॥ ३३॥
१.समाय । २ दाव । ३ अपनी प्रशंसा की चाह न रक््खे |
२० घुमिरन को अंग
दादू आातम जीव का, संसा सब सोगे ॥ ३9 0
दादू पिथ्र का नव ले, ति। मेटे सिर साल
चड़ी महूरत चालना, कैसी आवबे काल्ह 0 ई३ १
दादू असर जीववतें , कह्या न केवल रास
ऊँत कोल हम कहेंगे, जम बैरी सू कान ९ शे६ ! [दादू] ऐसे महेंगे मे।ल का, एक से जे जाइ।
आऔदह लेक समान से, काहे रेत भला ! ३७ ॥
सेडे सास सुजान नर, साई सेती लाई ।
करि साठ सिरजनहार सूँ महूँगे मेल बिकाइ ॥ रेल ॥ जसन करे नहिं जीव का, तल सन पवना फ्रेरि ।
दादू महंगे मे।ल कां, द्वुँ दे बटी दैक- उोपरे.ए२३०७"- [दादू] रावत राजा राम का, कदे ने जिसारी नाँव । आतम राम सेमालिये, तैे। सुबस* काया गाँव 0 ४० ॥ [दादू] अहनिसि सदा सरीर में, हरि चिंतत दिन जाई प्रेस मगन लय लीन मन, झँँतर गति ल्ये। लाइ ॥9१॥ निभिष एक नन्यारा नहीं, सन मत मंभ्छि समभादडू ।
एक झोग लागा रहे, ता के काल न खाइ ॥ ४९२ ४ [दादू] पिंजर पिंड सरीर को, सुब॒टा+ सहजि सादे । रमिता सेतो रमि रहे, बिमल बिमल जस गाई ॥४३॥ अविनासी सेँ एक है, निभिष न इस उत जाहू । बहुत बिलाई क्या करे, जे हरि हरि सबद सुणाहु ॥890
१ सट्टा; एक घस्तु के दाम के बदले दूसरी वस्तु देना । २ तन मन और साँख फो फैर कर अभ्यास न करना गोया इस अनभाल जीपन को दो
और खेर भर जक्ष फे लिये घेच देना है। रे कधो, कभी। ४ अच्छ ओके सेर ; ॥ बाला ।
जे चित चिह॒टे राम सू , समिरण सन छागे ।
खुमिरन को अंग रे
[दादू] जहाँ रहूँ तहें राम सें, भावे कंदुलि' जाहु। भावे शिर परथत रहूँ, भाव गेह बसाह ॥ 9४ 0 भावे जाइ जलहरि' रहूँ, भावे सोस नवाहर । जहाँ तहाँ हरि नाव सेँ. हिरदे हेत लगाह् ॥ ४६ 0
॥ चेतावनी ॥ [दादहू] राम कहे सच्च रहत है, नख सिख सकल सरोर | रास कहे बिन जात है, समझो सनतवाँ थीर ॥ ४७ ॥ [दादू] राम कहे सच रहत है, लाह/* मूल सहेत राम कहे बिन जात है, मूरख मनवाँ चेत 0 ए८॥ [दादू] राम कहे सब रहत है, आदि अंत लो सेइ । राम कहे बिन जात है, यह सन बहरि न होह् ४४९ ॥ [दादू] राम कहे सब रहत है, जोव ब्रह्म की लार | राम कहे दिन जात है, रे मन हो हुसियार ॥ ४० ॥ हरि भजि साफिल* जीवना, पर उपगार समाह । दादू मरणा तहें भला, जहें पसु पंखो खाइ ॥५१॥४ . [दादू] राम सबद सुख ले रहे, पीछे लागा जाह। सनसा याचा कमेना, लेहि सत* सहज समाह ॥ ४२। [दादू] रंचि संचि लागे नॉव से, राते माते होह़। देखेंगे दीदार कूं, सुख पावंगे सोह ॥ एश॥ [दाढू |] साईं सेव सब भले, बरा न कहिये कोड । सारी माह सो ब्रा, जिस घट नाँव न हे।इ ॥ ५९ ४ दादू जियया राम बिन, दुखिया येहि संसार । उपजे बिनसे खपि मरै, सुख दुख बारमबार ॥ ५४ ४
१ गुफा । २ जल बास करू। दे उलझ लटक ।| ४ लाभ। ५ साफल्य ८ सुफल ।६ पत्ती । ७ तत्व । ८ समेंँ में ।
श्२ खुमिरन फो अंग
रास नास रुचि ऊपजे, लेबे हित चित लाह ।
[दादू] साह जीयरा, काहे जमपुर जाहु ॥ ध६॥
[दादू] नीको श्रियाँ' आइ करि, राम क्षपि लोन्हा।
आतम साधन सेधि करि, कारज भल कोन्हा ॥ ४७ ॥
[दादू] अगम बस्त पाने पड़ी, राखो मंक्ति छिपाह ।
छिन छिन से।ह संभालिये, सति वे बोसरि जाहु ॥ ५८ ॥ ॥ नाम महिमा ॥
दादू उज्जल निर्मला, हरि रँग राता हाहु ।
काहे दादू पचि मरे, पानो सेती चाह ॥ ४८ ॥
सरीर सरोवर रास जल, माह संजम सार ।
ददू सहज सब गये, मन के मेल बिक्ार ॥ ६० ॥.
[दाद] राम नाम॑ जल छृत्वा, स्नान सदा जितःरे ।
सन सन आत्म नमलं, पंच भूपापंगतः१ ॥ ६१ ॥
[दादू] उत्तम इंद्रो निग्रह, मुच्यते* साथा सनः ।
परम पुरूप पुरातनं, चिंतते सदातन: *॥ ८२ ॥
दाठू सब जग बिष भस्था, नििष बिरला काह।
सेह निर्बिष हे।इगा, [जा के] नाँव निरंजन हाह ॥६३॥
दादू निर्बिष नाँव सौँ, तन सन सहजें हाह।
रास निरागा करेगा, ठूजा नाहीं काह ॥ ६४ ॥
ब्रह्म प्रगति जब ऊपजे, तब माया भगति बिलाहइ। .
ददू निमेल मल गया, ज्यूं रथि तिमिर नसाहु ॥ ६४ ॥।
ना पैपपेप--पप्््घाूौपप“।”!५६रमभतजज। ऊभघफत््््]--__."0.....3.तह.त7
. १ विस्थ>ाँ-समय-। २ हाथ् लगी। ३ नागरी. प्रचारनी सभा की पुस्तक में “प्रतिः” है। ४ पंच भूप अपंगतः अर्थात पाँचो इंद्रियाँ जो राजा के समान बल- यान हैं अपंग या पंगुल यानी निरल हो गई । ५ छूट जाना । ६ पंत्य प्रति |
सुमिरेन को अंग दाहू बिषे बिकार सौ, जब लग मन राता ।
;$ सब लग चोत न आवहे, जिभवन-पत्ति दाता ॥ ६६ ॥ [दाद्ू] का जाणोँ कब हेहगा, हरि सुसिरन हक-तार का जाणोँ कच्च छाड़ि है, यहु मन बिषे बिकार ॥ ६७ है से! सुमिरण हे।ता नहीं, नहीं सु कोीजे कांस । , दोद यह वन येँ गया, कयें करि पहये रास ॥ ६८ ॥ दाद राम नाम निज मेहनी, जिन मे।हे करतार । सुर नर संकर मनि जना, ब्रह्मा सृष्टि खिचार॥ ६९ ॥ [दादू] राम नाम निज औंषधी, काहैे कोटि बिकार । बिषस ब्याधि थे ऊबरे, काया कंचन सार ॥ ७० ॥ [दादूं|] निबिकार निज लॉँव ले, जीवंत इहे उपाह। दादू कृत्रिम काल है, ता के निकट न जाइु॥ ७१ ॥
॥ सुमिरन विधि ॥
मन पवना गहि सुरत्ति सो, दादू पावै स्वाद । सुमिरण मा हैं सुख घणा, छाड़ि देहु बकबाद ॥ »२ नाव सपीड़ा' लोजिये, प्रेम मगति गुन गाह ।
दादू सुसिरण प्रोति सो, हेत सहिल लयो लाह ॥ ०३ प्रान केंबल सखि राम कहि, सन पवना सखि राम । दादू सुरति मुख राम कहि, ब्रह्म सुब्ल निज ढठाम (७४ [दादू] कहता सुणतां राम कहि, लेता देसा राम। खाता पीता राम कहि, आत्म केंबल बिसराम ॥ ७४ ज्यं जल पेसे दघ म, ज्यं पाणी में लौण* ।'
ऐसे आतम रास सो, सने हठ साथ कौण ॥ ७६ 7
१ दद के साथ | २ नोन । हु
५४ सुमिरन की झांग॑
[दादू] राम नाम मन पैसि ऋरि, राम नाम ल्पी छाई यह इकंस त्रय लेक में, अनत काहे का जाद ॥ ७७ ' ना चंर भला न बन मला, जहाँ नहीं निज नाँव । दादू उनमुनि मन रहै, मला न सेहे ठाँव ॥ ७८ ॥ [दादू] निर्गु्ण नाम॑ मई, हृदूय भाव प्रबतित।
भें कम कलि बिष, माया सेह कंणितं ॥ ७६१ ॥ काल जाल॑ सेचितं, भयानक जम किंकरं ।
हें मुद्तिं सलगुरं, दादू अविगति दुशेन ॥ ८०६ ॥ [दादू| सब सुख सरण पयाल' के, तेल तराजू वाहि हरि सुख एक पलक्कु का; ता सब कह्या न जाइ ४८९ (दादू] राम नाम सब के कहे, कहिले बहुत बिमेक । एक अनेकों फिरि मिले, एक समाना एक ४ ८२ ॥ दादू अपणी अपणी ह॒ट्द में, सब के लेवे नाँव ।
जे लागे बेहद्ु सो, तिन की घलि मे जाँतज ॥ ८३ ॥ कोण पटंसररे दीजिये, दूजा नाहीं केाइ ।
राम सरीखा राम है, सुभिश्याँ ही सुख हाइ॥ ८७ ॥ अपणी जाणे अप्प गति, और न जाणे कोइ । सुमिरि सुमिरि रस पीजिये, दादू आनंद हाई ॥ ८ [दादू] सब ही बेद पुरान पढ़े, सेटि नाँव निरघार । सब कुछ इन हों मार्हि है, दया करिये बिस्सार ॥ ८
१ नं० ७६ और ८० साखियोाँ का अर्थ यह है कि निर्गुन कांस में जब लग जाता है तब क्रम (मिथ्या ज्ञान,) कर्म (पुन्य पाप), कलि विष (सांसा बोष) माया) मोह, हाल मय वंधन) जाल (बंधन), शोक और श्त्यु भय, ये खब हट जाते हैं; दृ्ष, आनभ्द, स भोर श॒ है ।२ पाताल । ३ उपमा | डे गान मात
सुमिरन को अँग रपः
पढ़ि पढ़ि थांके पंडिता, क्रिनहुँ न पाया पार । _ कथि कथि थाके मुनि जना, दादू नाई अघार ॥ ८७ ॥ निगम हिं अगम जिचारिये, तक पार न आवे। :. ३३ न
ता थे सेवक क्या करे, सुमिरन ल्यो लाबे ॥ ८८ ॥ [दाद्ू] अलिफ एक अल्लाह का, जे पढ़ि करि जाणे काह। कुरान कतेबा इलम सब, पढ़े करि पूरा हाइ ७८६ ॥ : दाहू यहु वन पिंजरा, माही मन सूवा ।
एक नाँव अलाह का, पढ़ि हाफिज हुआ ॥ €० ॥
नाँव लिया तब जाणिये, जे तन सन रहे समाह । आदि शत मच एक रस, कबहूँ भूलि न जाहू ॥ ६१ ॥।
॥ बिरह पंतिन्रत ॥ ता [दादू] एके दूसा अनन्य' की, दूजों दुसा न जाह । : आपा भूंले आन सब, एक्ट रहै समाह ॥ €२ दादू पीवे एक रस, बिसरि जाह सब और । आंबेगति यहु गति कीजिये, मन राखे। येहि ढौर ॥<श। आतम चेतन को जिये, प्रेस रसुस पीबे। हु
दादू भूले देह गुण, ऐस जन जीवे ॥ <8॥
काहि कहि केते थाके दादू, सुणि सुणि कहु क्या लेह । लूण मिले गलि पाणियाँ, ता सनिरे चित याँ देह ॥ <५ ॥ दादू हरि रख पोवर्ता, रतो बिलंब-न छाह ।
बारबार सेसालिये, मति वे बीसरि जाई ॥ <६ ॥ [दादू] जागत सुपना है गया, चिंताम्णि जञ्च जाई । - संघ हाँ सांचा हे।त है, आदि अत उर लाह ॥ ०७ 0
नै टू छ£ रर#ू॒ ल्$ ” १ ज्ञाम। २ केवल एक को भक्ति या सरन जिसमे दूसरे का ध्यान या सहारा नाम मात्र को न हो । ६से। ५ 5 जा ई
१९ छुमिरन को पअंग
नाँव न आज तथ दुखी, आधे सुख संतेषष । दादू सेघक राम का, दूजा हरण न सेक ॥ ८ ॥ मिले ते! सब सुख पाइणे, बिछुरे बहु दुख हा।ह । दाहू सुख दुख रास का, दूजा नाहीं काह ॥ €6 ॥ दाहू हरि का नाँव जल, मे सीन ता माहिं। संग सदा आनंद करे, बिछुरत् ही मरि जाहि ॥ १०० ॥ दाहू राम बिसारि करि, जीव केहि आधार ।
उय चालक जल बूँद का, करे पुकार पुकार ॥ ९०१ ॥ हुस जीव इहि आसरै, सुमिरण के आधार ।
दादू छिठके हाथ थे, तो हम को वार न पार ॥ १०२४ [दादू]नाव निमति' रामहिं भजे,मगतिनिमति भजिसे है । सेवा निमति साई भजे, सदां सजीवनि होंह ॥ १०३ ॥ [दाद] राम रसाइन नित चबे* , हरि है होरा साथ । से। घन मेरे साइथाँ, अलख खजोनारे हाथ ॥ १०० ॥ हिरदे राम रहे जा जन के, ताकी ऊर।* कोण कहे । अठ सिलि नौनिधि ता के आगे, सनमुख सदा रहै।॥९०४। घंदित दीनाँ- लेक णापुरा, केस दरस लहै।
नाव निशान सकल जग ऊपरि, दादू देखत है ॥ १०६ ७ दाठहू सछ जग लोघना, घनवंता नहि केाह।
से। घनवंता जानिये, (जा के) राम पदारथ हेड ॥॥१००॥ संगहिं लागा सब फिरे, राम नाम के साथ ।
चिंतामणि हिरदे बसे, तो सकल पद्ारथ हाथ ॥ १०८॥
१ निमित्त २ घुवै।३ खज़ाना । ४ ऊरा ७ चरे, पीछे । एक लिपि में “कूरा” है और एक में "ऊना? ।
छुमिरन को. अंग ५
दादू आनंद आंतसा, अबिनासी के साथ)... :
' प्राणनाथ हिरदे बसे, तो सकल पदारथ हाथे॥ ९०६ ॥ [दाद] भाव तहाँ छिपाइये, साथ न छाना होह। सेस (सातल गगन घर , परगट कहिये सेह ॥१९० ॥ [दादू] कहँ था नारद मुनि जना, कहाँ भगत प्रहलांद परगठट तीनिडें लेक मेँ, सकल पकारे साथ ॥ १११ ॥
. दाहू] कहें सिर बेठा धयान घरि, कहाँ कबोरा नाम । से। क्यों छाना हे।इगा, जे रे कहिगा रास ॥११२ ॥ [दाढू] कहाँ लेन सुकदेव था, कहँ पीपा रैदास । दादू साचा क्यों छिपे, सकल लेक परकास ॥ ११३ ॥ [दादू] कहूँ था गे।रख भरथरो, अनंत सि्चों का मल 4 परगठट गे।पीचंद है, दत्त कहे सभ संस ॥ ११४ अगम अगे।चर राखिये, करि करि कोटि जतन। दादू छाना क्यों रहे, जिस घदि राम रतन ॥ ११४ ॥ दादू सरग पयाल में, साचा लेवे नाँव । - सकल लेक सिर देखिये, परगट सब ही ठाँव ॥ ११६ 0 सुमिरन का संसा रहा, पछितावा मन साहिं । दादू मीठा राम रस, सगला पीया नाहिं ॥ ११७ ॥ दादू जैसा नाँव था, तैसां लीया नाहिं। है।स रही यहु जीव में, पक्ितावा सन माहिं ॥ ११८ ॥
॥ नाम दिसारने का बूंड ॥
दादू सिर करवत'* बहे, बिसरे आतम राम । माहि कलेजा काटिये, जीव नहीं बिस्त्राम ॥ ११६ ॥
१ भ्रतारा ।२ करोत न्झारा। '
घआछ
२८ छुमिरत को झंग
दादू सिर करवत बहै, राम रिदे मोड़ ! माहिं कलेजा काटिये, काल दस द्सि खाई ॥ १२९ ॥ दादू सिर फरवत बहै, ह्यंग परस नांह हाइ ! । साहिं कलेजा का्टिये, यहु बिया न जा काइ ॥ १२९ दादू सिर करवत बहै, नेनहुँ निरखे नाहि पु ह माहि क्लेजा काटिये, साल रह्या मन माह ॥ श्र । ज्ञेता पाप सब जग करे, तेता नाँव बिसार होह । जद राम सेमालिये, ती एता डारे थाह ॥ १२३ 0 (बाढ़ ७ अग् ही राम बिसारिये, तब ही मेटी मार । खंड खंढ करि व बोज् पड़े तेहि बार ॥ ९२४ 0 [वादू। जब ही राम घिरेलारथी तब हनी. मंपेरे काल । सिर ऊपरि करवत बहे, आई पड़े जम जाल ॥ १२५ ॥ [दादू |] जब ही राम बिसारिये, तथ ही कंघच* बिनास । पग॒ पग परलय पिंड पड़े, प्राणी जाइ निरास ॥ १२६ 0 [दादू | जब ही राम बिसारिये, तब ही हाना* हाह । आाण पिंड सरबथस गया, सुखो न देख्या कह ॥ १२७ ॥ | नाम रत्न-कोष ॥ साहिब जी के नॉाँव माँ, बिरहा पीड़ पुकार । चालाबेडी* शावणाँ, दाठू है दीदार ॥ १२८ ॥ ॥ सुमिरन विधि॥ साहेब जी के नाव माँ, भाव भगति बेखास* । ले समाधि लागा रहै, दादू साईं पास ॥ १५९ ४ ऊपक्ञाउज्लइ पु
5. से। २ डालिये। ३ झपडे। ४ कंद्ू- बिल से घाथ | एप, शोक । ५ हानि ६ तड़प, बेकली । ७ विश्वास । ! । ४ हानि, घादय।
खुमिरन को अंग
साहेब जी के नाँच माँ, मति बुधि ज्ञान बियार ।
, ' प्रेम प्रीति इस्नेह सुख, दादू जेवि अपार ॥ १३० | साहेब जी के नॉव माँ, सभ कुछ भरे भेंडार । नूर तेज अनंत है, दादू सिरजनहार ॥ १३१ ॥
जिस में सब कुछ से। लिया, लीर॑जन का नाउें। दादू हिरदे राखिये, मैं* बलिहारी जाउें ॥ ११२ ॥
इति सुप्तिर्त को अंग समाप्त ॥ २॥
रे० विरह का अंग
३-बिरह. को अग ॥ विरदह ब्यथधा ॥ [दादू] नमे। नसे। निरंजनं, नमस्कार गुरु देवतः। घंदनं सब साधवा, प्रणाम पारंगत: ॥ ९ 0 रतिवंसी आरत्ति करे, राम सनेही आवब । दादू ऊंबसर अब मिले, यहु बिरहिनि का भाव ॥ २४ पीव पुकारे बिरहिनी, निस दिन रहे उदास । रास रास दादू फहै, तालाबेली' प्यास ॥ ३ ॥ सन लचित चाठक उयें रहै, पिवर पित्र छागी प्यास । दादू द्रसन कारने, पुरवहु मेरी आस ॥ ४ ॥ [दादू] बिरहिनि दुख कासनि * कहे, कासनि देह सेंदेस । पंथ निहांरत पोव का, बिरहिनि पलदे केसरे ॥ ७॥ [दादू |] बिरहिनि दुख कासनि कहे, जानत है जगदोस ॥ दादू निस दिन बहि रहे, बिरहा करवत सीस* ॥ ६ ॥ सबद् तम्हारा ऊजला, चिरिया" क्यों कारी । जे बजे को
तुही तुही निस दिन करा, बिरहा की जारी ॥ ७ ॥ बिरहिनि रोबे रात दिन, फूरे प्षनहों माहि। दादू औसर चलि गया, ओऔतम पाये नाहिं ॥ ८५॥ . [दादू] बिरहिनि कुरले छुज ज्यूँ १ ,निस दिन तलफत जाइ ;
राम सनेही कारणे, रे।वत रैत्ि बिहाइ ॥ ९ ॥ पास बेठा सब सुने, हम को ज्वाब न देह । दाहू तेरे सिर चढ़े, जोब हमारा लेह ॥ ९० ४
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९ व्याकृलता। ९ किस से। ३ बाल सभेद हे गधा ४ छए जे कर सा दिन झारा खिर पर चला रही है। ५ चिड़िया बिरह की पीर रात
ः फा अभि «५ झति ” ६ जैसे कुज चिड़िया कुरेल फश्ती या चिझ्लाती है। प्राय “ भति ” से है।
विरह को अंग: श्र ब के सुखियां देखिये, दुखिया नाहीं काइ । दुखिया: दादू दांस है, ऐन' परस: नहिं होंह ॥ ११ ॥ साहिब मखि बेले- नहीं, सेवक फिरे उदास । यह जेदन* जिय:म रहै, दुखिया .दादू दास ॥.१२ ५ पिव बिन पल पल जग मंया, कठिन दिवस कयें जाह। दादू-दुखिया राम बिन; कॉल:रूप सब खाइ ॥ १३ ॥ दादू इस संसार में, मुंक सा दुखो न काहइ । पीध मिलन के कारणे, म. जल भरिया रोह ॥ १४ ४ ना वहु सिले न मे सुखी, कहु वयें जीवन हेइ । जिन मर के.चघायपल किया; मेरो दारूरे सेह 0 १४ ॥ दरसन- कारन बिरहिनो, बैरागिन हावे। दाढू बिरह बियेगिनो, हरि मारग जेब ॥ ९६ ॥ अति गसि आत्र मिलन के, जेसे जल बिन सीन । से देखे दोदार का, दादू 'आतम लोन ॥ १७ ॥ राम बिछेहीं बिरहिनी, फिरि सिलल न पाते । दादू सलफै मीन ज्यू, तु दूधा न खाबे ॥ १८॥ ा ॥विरदद लगन॥..... | [दादहू] जंब लग खति सिमते नहीं, मन निहचल नहिं हाइ। तब लग पिव परसे नहीं, बड़ी बिपति यह मे।हिं ॥ १६ ॥ उयूं अमली: के चित अमल. है, सूरे के संग्राम ! निरचन के चित घन बसे, ये. दादू के राम ॥ २० ॥ उये चाढक के जित जल बसे, जय पानी बिन मीन । जैसे चंद चक्तार है, ऐसे [दादू] हारे से कौन्ह 0२१ ४ १आॉँख नदी लगतो | २पोड़ा। शेदधा।
न] (पिरद को अंध ७ <ु # ज्यं कंजर के मन बसे, अनलपंखि आकास ।
य्ँ दादू का सन राम सो, यूँ बैरागी बनखेंड बास ॥२२ भेंवरा लुबची बास का, मेह्या नाद कुरंग । याँ दाठू क। मन रास सौं, (ज्ये) दीपक जेलि पतंग ॥२३! खबना राते नाद सो, नेना राते रूप । जिश्या राती स्वाद सो, (त्थों) दादू एक अनूप ॥ २४. देह पियारी जीव को, निस दिन सेवां माहिं । दादू जोवन मरण लो कब हूँ छाड़ी नाहिं ॥ ९२५ ॥ देह पियारी जीब को, जीव पियारा देह । दाहू हरि रस पाइये, जे ऐसा हे।इ सनेह ॥ २६ ॥ दादू हर दम माहिँ दिवान' , सेज हमारी पीष है। देखा से। सुबहान* , ये इसकरे हमारा जीब है॥ गा ॥| दादू हर दूम साहि विश कहूँ दरूने” दरस सो । दरस दरुने जाइ, जब देखो दीदार को ॥ २८५
॥ बिरद्द दिनती॥ दांदू दरूने दरदबंद, यहु दिल दरद न जाह । हम दुखिया दीदार के, मिहरबान दिखलाइ 0॥ २९ ॥ मृए पीड़ पुकारताँ, बेद् न मिलिया आह । दांदू थाड़ी बास थो, जे टुक द्रस दिखाह ॥ ३० ॥ [दादू] में भिष्यारों मंगिता, दुरसन देहु दूयाल । तुम दाता दुखभंजिता, मेरी करहु सेभाल ॥ ३९ 0
$ अंतर के दुए से घाचला धो रहा हूँ। २ ख़ुदा की पाक ज़ात। दे में । ४ घअंतरी |
विरेंह के अंग ह है. ॥ छिंन विछोह ॥
क्या जीये मैं जोबर्णां, बिन दरसन बेहाल ।
"दादू सह जोव्णां, परगट धरसन लाल*'॥ ३९॥ . , सेहि जग जोवन से। भला, जब लग हिरदे रास । राम बिना जे जोवना, से! दादू बेकास ॥ ३३ ॥ दादू कहु दीदार की, साईं सेती बात । कब हरि दरसन देहुगे, यहु अवसर चलि जात ॥ ३४:॥ बिथा तुम्हारे दरस का, मेाहि ब्यापै दिन रात । दुखी न कीजे दीन को, दरसन दीजे तात ॥ ३४. [दादू ] इस हियड़े ये साठ, पिव बिन क्वॉहि न जाइसी। जब देखें मेरा लाल, तब रोम रोम सुख आइसो॥ ३६४ तू है तैसा: परकास करि, अपना आप दिखाइ।
| दादू को दीदार दे, बछि जाऊँ बिलेंब' न लाइ ॥ ३० 0 [दाढू] पिव जी देखे मुज्क काँ, हाँ मो देखों पोव । है देखाँ देखत मिले, तो सुख पात्र जोब ॥३८५ ॥ [दादू कहै] तन सन तुम परि वारणै* , करि दोजे के बोर। जे ऐसी बिधथि पाइये, सौ लीजे सिरजनहार ॥ ३ ॥ दीन दुनी सदके * करे, टुक देखण दे दीदार । तन मन भी छिन छिन करें, मिस्त देश जगरे भी बार ॥४०॥ [दादू] हम दुखिया दीदार के, तूँ दिल थे दूरि न हाइ। भावे हम केा जालि दे, हुणाँ है से हाइ ॥ 9१४ [दाद्ू कहे] जे। कुछ दिया हंसकेँ, से संत्र तुबहीं लेहु। तुम बिन सन माने नहीं; दरस जापणा देहु ॥ ४२ ॥ .._ १ जीवन फल यही है. कि प्रीतम से मिलाप हो _[ जिकुटी का गुरु स्वरूप
लाल रंग का है ]। २ न््योद्वावर | ३ स्वर्ग ओर नके। पू्
हि: 3०, " बिरह को श्रंग
दूजा कुछ माँगों नहीं, हम को दे दोदार ।
है तब लग एकटग * , दादू के दिलदार ॥ ४३ 0 दू कहे] तूँ है तैसी भगति दे, ते है तैसा प्रेम । है तेसी सुरति दे, तूँ है तैसा खेम * ॥ ४8 ॥ [दादू कहै] सदिकेरे करों सरोर को, बेर बेर बहु भंत* | भाव भगसि हित प्रेम लथो, खरा पियारा कंत ॥ ४४ ॥ दादू दरसन की रली,* ,हम को बहुत अपार । क्या जाण कब हीं मिले, मेरा प्राण अचार ॥ ४६ ॥
दादू कारण कंत के, खरा दूखी बेहाल ।
मीरा * सेरा मिहर करि, दे दूरसन दरहाल ॥ ४७ ॥ लालाबेली प्यास बिन, क्यों रख पोया जादू । ह बिरहा दुरखन द्रद स्रों, हम का देह खदाय * ॥ ४८॥ तालाबेलो पीड़ सेल, बिरहां प्रेम पियास ।
दृरखन चैती दोजिये, बिलसे दाद दास ॥ ४६ ॥ [ददू कहे) हम का अपणणाँ आप के दुरक महब्बत दृद । सेज सुहाग सुख प्रेम रस, मिलि खेले लापद- ॥ ० 0 प्रेस भगति माता रहे, तालाबेलो अंग ।
सदा सपोड़ मन रहे, राम रमे उन संग ॥ ४१ ॥
प्रेम समगन रख पाइये, भर्गात हेत रुचि साव ।
जिरह जिसास*” निज नॉवसा, देव दया करि आब ॥ ४२॥। गह्टे दूसा सब बाहुड़े **, जे तुम प्रभटहु आह ।
दादू ऊजड़ सब बसे, दरसन देहु दिखाह ॥४३॥
१ एकटक, निरंतर। २ कुशल। दे निछावर। ४ भाँति से, थेति से।
४ लातु.सा॥,चाद। ५समालिक | ७ खुदा, इेश्वर। ४ चेपदं। & १० विश्चास, प्रतीत | ११ पत्तट आये । ६। &$ दृदू से भरा।
१ग(९ पग99
डक
विरह के अंग ३५
हम कसिह + क्या हाहगा, बिड़द तुमहोरा जाइ ।
- पीछे हाँ पछिताहुगे, ता यें प्रगटहु आह ॥ २४ 0 मीयाँ संडा आव घर, बाँढी बत्ता लाइ । दुखडे में हिडे गये, मरा बिछेहे राह ॥ ४४) ॥ है से। निधि नहिं पाहये, नहीं से है भरपूर! । दादू मन माने नहीं, ता भे मस्यथि फूरि | भ६ ॥ जिस घट इसक अझलाह का, तिस घट लेहि* न सास। दाठू जियरे जक' नहीं, सिसके साँसे साँस ॥ ४० ॥ रत्तो रख” ना बोसरे, मरे सेंमालि संमालि। दादू सुहदा थोर है, आखिक अज्लह नालिप ॥ ४८॥
॥ कखोटी ॥ |
दादू आसिक रबच्र दा, सिर भी डेवे लाहि । ह अल्लह कारणि आप का, साँडे अंदरि भाहि 0 ४६४ ॥ भेरे भेरे सन करे, 'डे करि कुरबाण । मीठा काड़ा ना लगे, दादू तैहू साण ॥ ६०४९ ॥ जब लग सीस न सॉँपिये, तब छूग इसक न होह । आसिक मरणे ना डरै, पिया पियाला सेइ ॥ ६१ ॥
१ कसने या साँसत करने से | २ प्रण । ३ हे मेरे मियाँ( मालिक ) मेरे घर आधघ, अर्थात मेरे मन में बास कर, भें दुह्मगिव लोक में फिरती हूँ, मेरे ठुख बढ़े गये हैं और तेरे वियोग से में मरती हूँ-पं० चंद्विका प्रसाद । -
४० है ” अर्थात “ सत्य ” जो अविनाशी है--' नहीं ” श्रर्थात “ अखत्य ” घा “ माया ” जो नाशमान है |५ लोह | ६ घोखा, डर | ७ साहिब । ८ साथ ।
& मालिह का प्रेमी श्रपने सिर ( आंपा ) को ,उतार कर उसके सस्प्रुख धरदे और प्रीतम के लिये अपने ( आपा ) को [ विरह की ] आग से जला दे ।
१० अपने तन को प्रीतम ,के आगे बोटी बोदी कर के .कुस्वानी करे और बाँट है फिर भी बह मधुर प्रीतम कड़वा न लगै--तव यद तुझे मिले [ साथ +« साथ ]। ता
श््द विरह को अंग
ते डोनी हें समु, जे डोये दीदार के ।
उजे लहदो अभ्लु, पसाई दे! पाण के ॥ ६२ ४
बिच्चां सभी ड्ूरि करि, अंदर दिया न पाठ ।
दादू रता हिक दा, सन सेहब्बत छाए ॥ ६ृशऐ 0
हसक मे।हबंबस सस्त लत, तालिब दर दोदार ।
देशस्त दिल हमदम हजूर, यादगार हुसियार ॥ ६? ॥
[दादू] आसिक एक अलाह के, फारिगरे दुनिया दीन
तारिक" इस ओऔजूद यें, दादू पाक अक्वोन ॥ ६४ 0
आशिकोा रह क़बूज कर्द:, दिल व जाँ रफ़्तंद ।
अलह आले नूर दोदम, दिले दादू बंद ॥ ६६४ ॥
दादू इसक अजाज सौँ, ऐसे कहै न केाह ।
द्॒द मुहब्बत पाइये, साहिब हासिल हाह ॥ ६७१ ॥
कहें आखिक अल्लाह के, मारे अपने हाथ ।
कहूँ आलम आओजूद सौँ, कहे जबाँ की बांत* ॥ ६८ 0 १ जो तुम अपना दीदार दोगे तो सब छुछ दे खुके--अपना रूप दिखा:
जिस से सब लालसा पूर/ हो जाय ।
२ बीच के सब [परदे] दूर कर, अंतर में बिया>दूसरे को धसने न दे, द् दिली इश्काके साथ एक ही से राता माता है।
३ छुट्टी पाये हुए । ४ छोड़े हुए, बिलग ।
५ इस साखी का सम्बन्ध पहली साखी न॑ ६५ से है यानी [ घह प्रेम म जिसमे लोक परलोक दोनों को परवाह नहों” रहती और श्रापा बिसर जाता ६ ऐसे मार्ग को जिद।गहिरे प्रेमियों ने गहा और उनके मन और छुरत उस में घ तो मालिक का प्रचंड प्रकाश और अआला नूर उन को द्रसता है जिससे ६ फिर नहीं हट सकते | ह
६ प्रेम प्रेम सुख (आवाज़) से कहने से काज नहीं” सरता, जब दर्द अथ तप रूपी बिरद से प्रेम प्राप्त हो! तब सालिक से मेला हो [देखो आगे की साखी
७ इश्कि मजाज़ी और इश्क हकीकी अर्थात् वाच्य और त्क्ष प्रेम में ज़म
आखमान का फू है।
बिरह फो अँगे ३७
दांदू इसक अलाह का, जे कब हूँ. प्रगटे आह ।
५ [ली[तनसन दिल अरवाह * का, सब पड़दा जाल जञाइ ॥ दर॥ अरवाह सिजदा कुनंद, वजूद रा थि कार । दादू नूर दादनी, आशिक़ाँ दीदार ॥ ७० ॥ कं लाइ। बिरह अगिन तन जाडिये, ज्ञान अगिनि दो छाइ । दाहू नख सिख परजलैर३ , तब राम चुफावे आई ॥०१॥ बिरह अगिनि में जालिबा, दरसन के ताहे। दादू ज्यतुर राहबा, दूजा हि नाहीं॥ ७२॥ साहिब सेँ कुछ बल नहीं, जिनि* हठ साथे फाह । दादू पीड़ पुकारिये, रात हाह से। हाहु॥ ०३॥ ज्ञान ध्यान सब छाड़ि दे, जप तप साधन जेाग।_ दादू बिरहा ले रहै, छाड़ि सफल रस भेग 0 ०४ ॥ जहें बिरहा तह और क्या, सुथि बुधि नाठे* ज्ञान । लेक बेदु मारग तजे, दाठू एके पज्यान ॥ »४ ४ बिरही जन जीवे नहीं, जे कटि कहे समभ्दाह । दादू गहिला' है रहै, के तलफि तलफि मरि जाए ॥७६॥ दपदू तलफै पीड़ से, चिरहे! जन तेरा । ससके साईं कारणे, मिलि साहिब मेरा ॥| ७७ ह पड़चा पुकारे पोड़ से, दाहू बिरहो जन । रास सनेही चित बसे, ओर न भाव मन ॥ ०८ ॥
१ अरवाद अरबी भाषा में रूह का वहुबचन है अर्थात जीवात्मा या सुरति ; सुरति पर तन पिंडी मन और निञज्ञ मन के खोल चढ़े है ।
ह २ दंडवत चेत॑न्त खुरति से करना चाहिये न कि मायक तन से, सो भक्तों की अंतर दृष्टि के। प्रकाश देने वाला (नूर दादनी) समवंत का दर्शन (दीदार) है- [इस साखी का अर्थ पं० चंद्विका प्रसाद का दिया हुआ ठीक नहीं जान पड़ता]
३ भसक कर जलै। ४ मत् । ५ नछ हो गये । ६ मूर्ख, चावला ।
द्ेण बिरह को अंग
जिस घटि बिरहा राम का, उस नींद न अआजे। दादू तलफै बिरहिनी, उस पीड़ जगावे।। ७६ ॥
सारा सूरा नोंद मरि, सब कोह सेदे ।
दादू घायल द्रदवँद, जागे अरू रोबे ॥ ८० ॥
पीड़ पुराणी ना पड़े, जे अंतर बेघ्या हाइ ।
दादू जोवन मरन ले, पढ़चा पुकारे सेइ ॥ ५१७ _ दादू बिरही पीड़ सौँ, पड़चा पुकारैे मौत ।
रास बिना जीवे नहीं, पीव मिलन की चोत* ॥ 5२.॥ जे कबहूँ बिरहिनि मरे, ते सुरति बिरहिनी हे।इ।
दांदू पिव पिवर जीवसाँ, मुवा मी ठेरे सेइ ॥ ८३ ॥ - [दादू] अपनी पीड़ पुकारिये, पोड़ पराई लाहि। पीड़ पुकारे से। भला, जा के करक कलेन्ने माहि ॥८४॥ ज्यूं जीवत मिरतक कारण, गति करि नाखे आप । याँ दादू कारणि रास के, बिरही करे बिलाप ॥ ८५ ॥ तलफि तलफि बिरहिनि मरै, करि करि बहस बिलाप । बिरह अगिनि में जलि गह्ढे, पीव न पूछे बात ।॥ ८६ ॥ [दादू ] कहाँ जावे कौण पे पुझाराँ, पीव न पूछे बात । पिव बिन चैन न आवहे, क्यों परोंरे दिनरांत | ८७॥ [दादू] बिरह बिये।श न सहि सके, से पे सह्या। न जाइ। केह कही मेरे पोव काँ, दृरख दिखाले आह , ८८ ४ [दादू | बिरह बियेग ल सहि सक्लाँ, निस दिन साले मे हि । काईं कही मेरे पोष का, कब मुख देखें ते।हिं ।| ८६ ॥ “रत किकर। रझले [इक से बिलान पा यूत कला
घिरह की अंगें ३$ (द ] बिरह बिये।ग न सहि सके, तन सन घरे न घीर। . हाड्े कहा मेरे पीव का, मेटे सेरो पीर ॥ ६० ॥ [दादू कहै| साथ दुखो संसार में , तुम बिन रह्या न जाइ। ओऔरेों के आनंद है, सुख से रेनि बिहाह'॥ <१॥ दाद लाइक हम नहीं, हरि के दरसन जेग । बिन देखे मरि जाहिंगे, पित्र के बिरह बियेग ॥ €२ दादू सुख साई सेँ, जोर सबे ही दुक्ख । । देखाँ दरसन पीव. का, तिस हो लागे सुक्ल ॥। .€३ ॥ चंदन सोतल चंद्रमा, जल सीतल सब केाह । दादू बिरही राम का, इन सेँ कदे* न हाह ॥ <8॥ ' दादू. घायल द्रद्वंद, संतरे करे पकार। - । , साईं सुण सब लेक मे , दाद यह अधिक्रार ॥ ४ ॥ : दादू जागे जगत गुर, जग सगला से । बिरही जागे पीड़ साँ, जे घांइल -होवे ॥| <ं६ ॥ बिरह अगिन का दाग दे, जोवत मिरतेक गाररे। दादू पहिली घर किया, आदि हमारी दौर ॥ €७॥ 5 [दादू] देखे का अचरज नहीं, अनदेखे का -हाइ । देखे ऊपर दिल नहीं, अनदेखें का राइ ॥ €८ ॥ पहिलो आगम बिरह का, पीछे प्रोधि प्रकास। - प्रेम मगन लैलीन मन, तहाँ सिलन की झास ॥ << ॥ बिरह बियेगो सन भला, साह का बैराग । _-- : सहज संतेाषी पाइये, दादू मे।देश् भाग ॥ १०० + . ९ बीतती है। २ कथी, कभी । ३ कृषर । ७ बड़े।
कस.
३० चिरह की अंग
[दादूं] छ़षा बिना सन मोति न उपजे, सोतल निकट जल घरिया । जनम लगे जिव पुणग- न पीबै,निर्म ल दृह दिसि भरिया १०१ [दादू] घुष्घा* बिना तन प्रीतिन उपजे, बहु विधि भेजन हे नेरारे। जनम लगे जिव रती न चाखे, पाक पूरि बहुतित ॥९०२॥ ([दादू | तपति* बिना तन प्रोति न डपजै, संगहि सोतल - छाया । जनम लगे जिव जाणे नाहीं, तरवर त्निन्नुयन राया ९० [दादू ] चेट बिना तनग्रीति न उपजे, ओषद छ्ंग रहंत । जनम लगे जिव पलक न परसे, बूंटो अमर अनंत ॥१०५ [दादू] चोट न लागी बिरह की, पीड़ न उपजी आआइ । जागि न रोजे घाह दे, सेवत गई थिहाह ॥ १०४ 0 दादू पीड़ न ऊपजी, ना हम करी पुकार । ता थ साहिब ना मिल्या, दाठू बीती बार० ॥ १०६ ॥ अंदर पीड़ न ऊभरै, बाहर करे पुकार । दादू से क्यें। करि लहै, साहिब का दीदार ॥ १०७ ॥ मन हों माह फूरणाँ, रोवे सन हों माहि । सन हीं माह चाहा दे, दांदू बाहर नाहि ॥ १०८ बिन हीं नेनों रोवणां, बिच मुख पीड़ पुकार । बिन हों हायोँ पोटनां, दादू घारंबार ॥। श्०्ढ | प्रीति न उपजे बिरह बिल, प्रेम भगति क्यों होइ। सब भूठे दादू भाव बिन, कोटि करे जे कोइ ॥ ११० ॥
? ज्ुधा, भूज प॑स | ४ तपन।] ५४ माश्कर | ७ समय । ४ फराह। दवा। ६ धाड़
बिंरद् को अर्ग
[दाद] बातों बिरह न ऊपजे, बातोँ प्रीति न हाह जाती प्रेम न पाइथे, जिन रे पतौजे काह ४ ९११ दाद तो पिव पाइये, कसमले' है से जाई)... निरसमल सन करि आरंसो, मूंराते भााह* लखाह ॥ ९: दादू सी पित्र पाइये, करि मंग्के बोलाप।
सुनि है कबह चित्त घरि, परघट हेवे आप ॥ ११३ दाह तो पिब्र पाइये, करि साहे की सेव । काया माँहि रूखायसो, घटे ही भीतर देव ॥ ११४ ॥ दादू तो पित्र पाइये, भाव प्रोलि लगाइ |
हेज * हरी बलाइये, माहन मंदिर आइ ॥ १९१४५ [दाद] जा के जेसी पीड़ है, से। तैसो करे पुकार ! के सपिम$ के सहज से, के मिरतक लेहि बार ४ ९ दरद॒हि बूक्ते द्रद॒बंद, जा के दिल होवे । द क्या जाण दादू दरद को, नींद भरि सेजे ४ १९० 0 दाद अच्छर प्रेस का, केाई पढेगा एक ।
दादू पुस्तक प्रेम बिन, केते पढ़ आअलनेक ॥ ११९८ 0 दादू पासो प्रेम को 'बिरला बाँचे केाइ ।
लेद परान पुस्तक पढ़, प्रसम 'लना क्या है।हू ॥ ११६ [दाद | कर बिन सर बिन कमान बिन, मारे खचि कसी लागी चेट सरीर मे, नखसखिख साले सीस ॥ १२० 0 [दादू] भलका मारे भेद सो, साले संक्ति पराण । मारणहारा जानि है, के जेहि लागे घाण ॥ १२९ ॥
॥ .. * मैल। २ घट में । ३ ऐसा उतंग भीत से जैसी कि गाय को बछड़े के साथ होती है कि उसके सन्प्रुख आतेद्दी पनिद्य जाती है यानो थन में! दध भर आता भा है । ४ सूदम । ५ कसकर, तानकर |
४२ विरंद को अंग ([दादू] से। सर हम को सारिले, जेहि सर मिलिये जाहइ निस दिन मारग देखिये, कबहूँ लागे आह ॥ १२२ ॥ जेहि लागी से! जागि है, बेघ्या करे पुकार । दादू पिंजर पीड़ है, साले बारम्बार ॥ ९२३ ॥ बिरही ससके * पीड़ सो, ज्यों घाइल रन माहिं । प्रीतस सारे बाण भरि, दादू जीवे नाहिं ॥ १२० ॥ [दादू] बिरह जगावे द्रद को, द्रद् जगावे जीव । जीव जगावे सुरति को,पंच पुकारे पीव ॥ १२४ ॥ दादू मारे प्रेम खो, बेचे साथ सुज्ञाण । मारणहारे को मिले, दादू बिरही बाण ॥ १९२६ 7 सहज मनसा मन सये, सहज पवना सेद् । सहज पंचों थिरि भये, जे चेद बिरह को हेइ ॥ १२० । मारणहारा रहि गया, जेहि लागी से नाहिं। कथहूँ से दिन हा।हगा, यहु मेरे लन माहि ॥ १२८॥ प्रीसम मारे प्रेम सो, तिल को क्या सारे । दोढू जारे बिरह के, सिन को क्या जारे ॥ १२६ | दादू पड़दा पलक का, एता उबर होइ । दादू बिरही राम बिन, क्यों कांरे जीने सह ॥ १३० ॥ काया मांह क्यों रहा, बिल देखे दीदार । दादू बिरही बावरा, मरे नहीं तेहि बार ॥ १३१ ॥ बिन देखे जीवे नहीं, बिरहा का सहिलाण *। दादू जीबे जब लगें, तब लग बिरह न जाण ॥ १३९ ॥ राम रोम रस प्यास है, दादू करहि पृझार। राम घटा दल उमग्रि करि, बरसहु सिरजनहार 0 १३३
१ सिलके साँस भरे। २ चिल्ह, निशान । ््
विश्ह को अंग ... डे
प्रत जे। मेरे पीज की, पेठी पिंजर माहि । रोम रास पिड पिड करे, दाडू दूसर नाहि ॥ १३४ ॥ सब घट खबना सुरति सो, सघ घट रसना बेन । सब घट नेना है रहे, दादू बिरहा ऐन ॥ १३४ ॥ रात दिवस का राोवणा, पहर पलक का नाहि । शेवत रावत मिलि गया, दादू साहिब माहि ॥ १३६ ॥ [दादू] नैन हमारे बावरे, रोते नहिं दिन राति। साई संग न जागहीँ, पिव क्यों पूछे बात ॥ १३७ ॥ ५ _ ५७» ब्प््ड नैनहुँ नीर न आइया, क्या जान ये रोह । तैसे हीं करि रोइये, साहिब नेनहुँ जेह ॥ १३८ ॥ [दादू] नैन हमारे ढोठ हैं, नाले नोर न जाहि । सूके सरा सहेल वे, करेंक भये गलि साहि ॥ १३६ * ॥ [दादू] बिरह प्रेम की लहरि से, यह सन पंगुल हाह । राम नाम में गलि गया, बूफ़ै बिरला कोइ ॥ १४० 0 [दादू] बिरह अंगिनि में जलि गये, मन के मेल बिकार । दादू बिरही पीड का, देखेगा दीदोर ॥ १४१ ॥ बिरह अगिति में जलि गये, मन के बिणे बिकार । सा थ पंगुल है रह्म, दपदू दर दोदांर ॥ १४२ ॥ १ कहावत है कि असह डुख मे आओ भी सूख जाते हैं इसी मसल को दादू साहिब अलंकार मे फर्माते हैं कि जैसे तलैया (सरा) के जीव मछली कछुए मेंढक . झादि ऐसे निडर (ढी5) या वेपस्वाह देते हैं कि तलैया से पानी के साथ चह | कर नाले में अपनी रत्ता नही करते वल्कि तलैया दी में पड़े रदते हैँ और उसी के साथ (सहित) सूख कर चमड़ी (करंक) बन जाते हैँ ऐसी ही दशा हमारी आँखें की है कि आँसू की धारा के त्याग कर जहाँ को तहाँ सूख या बैठ गई ।
५ यही भावार्थ और शब्दार्थ १३६ नं० की साखी का दै न कि जैसा ,पं० चंद्विका, - प्रसाद ने लिखा।|है | हे -
४४ ,विरह्द को अँग
[दादू] जब बिरहा जाया दर्द सै, सब मीठा लागा राम ।
काया लौगी काल है, कड़वे लागे काम ॥ १४३ ॥
जब राम अकेला रहे गया, सन मन गया [बलाह ।
दादू बिरही तब सुखी, जब दरस परस मिलि जाह ४९४९
जे हम छाड़ों राम काँ, सो रास न छाड़े ।
दादू अमली अमल मैं, लन क्यें करि काढ़े ॥ १४४ ॥
बिरहा पारस जब मिले, तथ बिरहेनि बिरहा होड़ ।
दादू परसे बिरहिनी, पिड पिड टेरे सा ॥ ९छ४६ ॥
आसिक मासुक है गया, इसक कहावे सेइ ।
दादू उस मासूक का, अज्लहि आखिक हाइ ॥ १४७ !।
राम बिद॒हिली है गया, लिदहिनि है गई राल । ।
दादू दिए्शा जापुरा, ऐसे करि गया काम ॥ १४८ ॥
बिश्हू लिथारा ले गया, दादू हम को आह ।
जहूँ गम अगेचर राम था,तहँ क्षिरह बिना को जाह ॥१४८
बिरहां बपुरा आइ करि, सेव जगाबे जीव ।
दादू अंग लगाइ करे, छे पहुँचाने पी ॥ ९४०॥
बिरहा मेरा मीत है, बिरहा बैरी नाहि ।
बिरहा के बेरी कहै, से दादू किस झाहिं ॥ १४१ ॥।
[दादू] इसक अलह की जात है, इसक जलह का ऊंग।
इसक अलह आजूद है, इसक अलह का रंग ॥ १४२ ॥ हे ये, जहाँ घरे थे पाँव ॥ १४३ ॥
बाट बिरह क्री सेथि करि
, पंथ प्रेत का लेह । ले के मारग जाइये, ठूसर पाँव न देह ॥ १४७ ॥ हु ०
बिरह को अंग भ्र्प
बचिरहा बेगा भगती सहज में, आगे पीछे जाइ । - थोड़े माहें बहुत है, दादू रहु ल्थी लाइ ॥ १४४ ॥ .
बिरहा बेगा ले मिले, तालाबेली पीर ।
दादू मन घाइल भया, साले सकल सरीर ॥ १४६ ५
'. ॥ बिरद् बिनती ॥ '
आज्ञा अपरंपार की, बसि अंबर भरतार।
हरे पटम्बर पहिशि करि, घरती करे सिंगार ॥ १५
बसुधा सब फूले फले, पिरथी अनंत अपार ।
गगन गरिज जल थल भरे, दादू जैजेकार ॥ १४८
काला मुँह करि काल का, साह सदा सुकाल ।
मेघ तुम्हारे घरि घर्णाँ, बरसहु दीन द्याल ॥ १४८
॥ इति विरद्द के अंग समाप्त ॥ ३ ॥
[साखो १५७-९५३] आँधी नामक गाँव में दादू साहिब चौमासे के ऋतु में रहे “ थे व्दों वर्षा न द्ोने से लोगों की प्रार्थने पर यह तीनाँ साखियाँ वना कर बिध्ती की कि जिस पर बरषा हुई और अकाल जाता रहा | ह
४५ परचा को अंग
४-परचा को अग
[दादू] नभे। नमे। निरंजतं, लमसुकार गुरु देवतः । बंदन सर्व साचवा, प्रणाम पारंगत: ॥ १४ [दादू] निरंतर पिड पाइया, सहें पंखी उनसन जाई । सप्ली मंडल भेदिया, अ'्ट' रहा समाह ॥२॥ (दादू] निरंतर पिड पाइया, जहें निगम न पहुँचे बेद ' तेज सरूपी पिउ बसे, कह घिरला जाने भेद् ॥ ३ ॥ [दादू] निरंतर पिड पाइयां, तीन लेक भरपूरि । सब सेजोँ साई बसे, लेग बताने दूरि ॥ 9 ॥ [दादू] निरंतर पिउ पाइया,जहेँ आर्नंद् बारह मास । हंस से परल हंस खेले, तहें सेबन सजासमी पास ॥ ४ ॥ [दादू] रंग भरि खेले पिड सेँ, तहं बांजे बेन रसाल । अकल पाठ परि बैठा स्वामी, प्रेम पिलाबै छाल ॥ ६ ॥ [दादू] रंग भरि खेले पिउ सौँ, सेतों दोनद्याल । निसु बासर नहिं तहेँ बसे, मानलरेवर पाल ॥ ७ ॥ [दादू] रंग भरि खेले पीउ सौ, तहेँ कबहुँन हाथ बियेग। आदि पुरुस ऊंतरि सिल्या, कुछ पूरबले संजेग ॥ ८॥ [दाद] रैंग मरि खेले पीड से, तह बारह सास बसंत । सेवग खदा छंद है, जुग जुग देखे कंत ॥ ६ 0 [दादू | काया अंतर पाइया, ब्रिकुठी के रे तीर । सहज आप लखाइया, ब्यापा सकल खरीर ॥१० ॥ [दादू| काया अंतर पाइया, निरंतर निरचार। सहजे छाप लखाइया, ऐसा समरथ सार ॥ ११५॥
१ सप्तलोक के परे ब्रह्म का आउवो मंतल के
परथा को अंग व
([दादू] काया अंतर पाइया, अनहंद बेन बजाइ। - सहज आप लखाइया, सुब्ध मेंडल में जाह ॥ ९२ ॥ [दादू] काया अंतर पाहइया, सब देवन का देव । सहज आप लखाइया, ऐसा अलख झअमभेत ॥ १३४ [दवादू] मँवर केंबल रस बेचिया, सुख सरक्षर रस पोव । तहें हंसा मे।ती चरण, पिड देखे सुख जीव ॥ १४ ॥ [दादू] मेंबर कंघल रस बेथिया, गहे चरण कर हेत । पिड जी -परसत ही भया, रोम रेस सब सेत ॥ १५ ॥ [दादू] मेँवर कंबल रस बेचिया, अनत न भरमे जाइ । सहाँ बास बिलंबियथा, सगन सयथा रस खाहु ॥ १६ ॥ [दादू] भँवर केवल रस बेथिया, गही जे। पिड की ओठट । तहाँ दिल मेंवरा रहे, कोण करे रस चेट ॥ १७॥ ॥जिज्ञासा ॥ [दादू) खेजजि सहाँ पिउ पाइये, सब॒द् उपन्ने' पास । सहाँ एक एकांत है, तहोँ जाति परकास ॥ ९८॥ [दादू | खेजि तहाँ पिड पाइये, जहें चंद न ऊगै सूर । . निरंतर निरचार है, तेज रह्या मरप्र ४ ६ ॥ ([दादू] खे।जि तहाँ पिब पाइये, जहें बिन जिस्या गण गाइ । तहें आदि. पुरस अलेख है, सह्जें रह्या समाह ॥ २० १ [दादू ] खेाजि तहाँ पिड पाइये, जहँ अजरा अमर उमूँँग। जरा मरण मे भाजसी, राखे अपणे संग ॥ २१ ॥ .
४८ पेस्चा का अंग
दादू गाफिल छे बतै, मंभ्के रब्थ निहार । मंझेह पिउ पांण जी, मंझेहें बीचार॥ २२ ॥ दादू गाफिल छे वे, आहैे मंक्ति अलाह-। पिरो पाण जे! पाण स, लहे सभेह साव ॥ २३ ॥ दादू गाफिल छे वते, आहे मंश्ति मुकास । दरगह में दोवाण तत, पसे न बेड पदणरे ॥ २९ दादू गाफिल छी बते, अंदर पिरी* पस । तखत रबाणो बच में, पेरे तिन््ही बस ॥ २५॥ हरि चिंतामणि चिंत्ताँ, चिंता चित की जाइ" । « क क्र .. 3 चिंतामणिचित मे मिल्या, तहें दादू रह्या लुभाइः ॥ २६ ॥ अपने नैनहें आप के, जब आतम देखे । 9. ७ तह दादू परआतमा, ताही के पेखे ॥ ३७ ॥ . « » चांद ॥ १ [दादू| बिन रखना जहं बालिये, तहेँ ऊंतरजामी आाप। थिन खबनहुँ साई सुने, जे कुछ की जे जाप ॥ २८॥ ज्ञान लहर जहुँ थे उठै, बाण का परकास । >> ; पं कक ज
अनभे जहें थे ऊपजे, सबदे किया निवास ॥ २€ 0 से चर सदा बिचार का, तहाँ निरंजन बास । तह तू दादू खेजि ले, ब्रह्म जीव के पास ॥ ३० 0
१ ग़ाफिल इधर उधर क्या फिरता है अपने अंतरही में प्रीवम के देख, तेय प्रीतम तेरे घट में आप बिराजता है वही” उस के। पद्दिच[न | २ प्रीतम अपने दी आप खब स्वाद (साथ) ले रहा है। ३ तेरे घट ही (द्र्गह) में चद सार चह्तु अथोत भगवंत आप विराजमान है पर तुझे नहीं दीखता। ४ प्रीतम | ५ देख। ६ भगवंत का सिंहासन तेरे घट मेँ है तिस्ही के चरनों में वासाकर | “पेर” का अर्थ पं० चद्विका प्रसाद ने “समीप” लिखा है परन्तु अ्ंसल
में “पैर” या “चरन” है। ७ हरि चिंतामरि का चिंतवन करने से चित्त की सकल चिंचा जाती रहती है। ८ एक लिपि में “लुमाइ” की जगह “समाइ” है।
पंसचा का अंग 88
जहें सन मन का सूल है, उपजे ओअक्रार ।
अनहद सेक्ला' सबद का, आतम करे बिचार ॥ ३१ 0 भाव भगति ले ऊपजे, से ठाहर निज्ञ सार।
सहूँ दादू तिथि पाहये, निरंतर निरचार ॥ ३२ ॥
एक ठौर सूक्तै सदा, निकट निरंतर ठाँड ।
तहाँ निरंतर परि ले, अजरावर- तेहि नॉडठ ॥ ११ ॥ साध जन क्रीलार कर, सदा सुखी तेहि गाँव ।
चल दाद उस ढार की, सम बलिहारी ज्ाँव ॥ ३९ ॥ दादू पस पिरनि खे, बेही संक्ति कलूबच । | बेठे। आाहे विज्वु मं, पाण जे! मह॒बूब ॥ ३४४ ॥
नेनहूँ वाला निरखि करि, दाद्ू चाले हाथ ॥
तब हीं पावे रामधन, निकट निरंजन नाथ ॥ श्६ 0 नैनहुँ बिन सुक्ति नहीं, भूला कतहूँ जाई ।
दादू घन पावे नहीं, आया मुल गवाह ॥३० ॥
जहें जातम त्तहें राम है, सकल रहा मरपुर ।
श्पंतरगसि ल्थो लाइ रह, दाद सेवग सूर ॥ ३८ ॥ ॥ अतर ||
पहली लेचन दोजिये, पोछे ब्रह्म दिखाड । दादू सूक्ते सार सब, सुख स॑ रहे समाह ॥ ३८ ॥ आँधी* के आनेंद् हुआ, नेनहूँ सूभन लाग । दरसन देखे पोव का, दाद माटे भाग ॥ 8० ॥
१ सोत॑ निकास। २ जिसको घुढ़ापा न आये, अमर। ३ बिल्लास । ४ पं० संद्विका प्रसाद ने इस साखी के अर्थ ठीक नहीं किये हैं --(पिरी” था “पिरनि”! का अर्थ “प्रीतम” है, न॑ कि “परमेश्वर” और “चेही” के अर्थ “बैठ कर” हैं जिसे पं० चं० प्र० ने 'पेंही -पीव” लिखा है। सारांश इस साखी का यह है
कि झपने घद् में बेठ कर अर्थात् ध्यान घर कर अपने प्रीतत को देख (पस) पह झाप रूप घहाँ विराजमान है। ४ अंधा ।
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पृ पंस्चा को अँमें [दादू] मिहीं महल बारीक है, गाँठड न ठाँड न नॉड ता सो मन लागा रहे, मे बलिहारी जाँड ॥ ४१ ॥ [दादू] खेल्या चाहे प्रेम रस, आलम' अंग लगाह । दूजे को ठाहर * नहीं, पुहपु न गंध समाह '॥ ४२ ॥ ॥ अद्द॑ निषेध ॥
नाहीं है करि नाउें ले, कुछ न कहाई रे । साहिब जी के सेज पर, दादू जाई रे ॥ ४३९ ॥ जहाँ राम तहँ मं नहीं, में तहेँ नाहीं राम । दादू महल बारीक है, है के। नाहीं ठाम ॥ 9४ 8 में नाहीं तहेँ मं गया, एके दूसर नाहिं। नाहीं को ठाहर चघणी, दादू निज घर माहिं 0 ४५ 0 में नाहीं तहँ में गया, आगे एक अलाव*। दाहू ऐसी बंदगी, ठूजा नाहीं जब ॥ ४६ ॥ दादू आपा जब लग" , तब लग दूजा हा । जब यहु आप! मिट गया, तब दूज्ा नहिं काह ॥४ [दादू] में नाई तब एक है, में आईं तब देह । मते पडुंदा मिटि गया, तब ज्यू था स्थेंहीं हा।इ ॥, दादू है को क्षय घणा, नाहीं को कुछ नाहिं। दादू नाहीं है रहड, अपणे साहिब माहि ॥ ९६ ॥
॥ निरंजन धाम ॥ [ददू तौनि सुल्नि आकार की, चोौधो निरगुण नाई सहजे सुत्नि में रमि रह्या, जहाँ तहाँ सब्च ठाम ॥
5 जक्त, दुनियाँ। २ ढौर, गुजाइश। ३ अर्थात एक फूल में दूसरी. नहीं समा सकती। ४ दीन अंग से बिना दिखावे के नाम का खुमिरन तो मालिक की खांयुज्य भक्ति प्राप्त हो अर्थात उस से साज्षात मेला ५ ममता । ६ अल्लाह । ७ तक। ' हा
प्रुचा को अंग प्र
७ छ ०] पाँच तत्त के पाँच है, आठ तत्त के आठ । आठ तत्त का एक है, तहाँ निरंजन हाद ॥ ४१ ॥ [दादू] जहँ मन माया ब्रह्म था, गुण इंद्री आकार-। तहूँ मन बिरचे सबति थें, रवि रहु सिरजनहार ॥ ४२ ॥ काया सुत्षि पंच का बासा, आतम सुल्षि प्रान परकासा । परम सुन्नि ब्रह्म सो मेला, आगे दादू आप अकेला ॥४३ ७ [दादू] जहाँ थे सब ऊपजे, चंद सूर आकास । पानी पवन पावर किये, धरसा का परकास ॥ ४४ 0 काल करम जिव ऊपजे, सांघा मन घट साँस । तहे रहिता रमिता राम है, सहज सुक्धलि सब पास ॥ ४४ ॥ सहज सुद्धि सब ठौर है, सब घट सबही माहिं । त्तहाँ निरंजन रमि रह्या, काह गुण ब्यापे नाहिँ ॥ ४६ ॥ क ३ + [दाठू] तिस सरवर के तीर, से। हंसा मोती चुण । पीजे नौकर नीर, से। है हंसा से सुण ॥ ४७ 0 [दादू| तिस सरवर के तीर, जप तप संजम कोजिये । तह सनमुख सिरजनहार, प्रेम पिलाबे पीजिये ॥ ४८ ॥ दादू] तिस सरबर के तोर, संगी' सबे सुहावणे । हूँ बिन कर बाजे बेन, जिभ्या-होणेः गावणे ॥ ४८ ॥ दादू | तिस सरवर के तोर, चरण कँवल बित लाइयां । हैं आदि निरंजन पीव, भाग हमारे जाइया 0 ६० ॥ दादू] तहज सरोवर आतमा, हंसा कर कलेल । [ख सागर सूभर भख्या, मुक्ताहल सन मेल ॥ ६१ ॥
१ हंस ओर प्रेमी सुरतें। २ बिना जोम के ।
परचा को अऋग
देखे दयाल का, सनमुख साई सार । थरि देखे नेन मरि, तीघरि सिरजनहार ॥ ८०। £ देखा दाल काँ, रोकि रहा सब ठोर । ह८ घटि मेरा साइयाँ, तें जिनि जाणे ओर ॥ ५१ सन नाहीं में नहीं, नहें माया नहिं जीव । 6 एके देखिये, दृह दिसि मेरा पीत ॥ ८२ ॥ दू] पाणी माहूँ पेशसि करि, देखे दृष्टि उचार । हा व्यंब' सब पझरि रहा, ऐसा ब्रह्म बिचार ॥ ८ 7 लीन आनंद में, सहज रूप सब ठौर । देखे एक काँ, दूजा नाहीं और ॥ ८० 0 दर] जह तहेँ सखाखो संग हैं, मेरे सदा अनंद । ॥ बेन हिरदे रहें, प्रण परमानंद ॥ ८५४ ॥ गत जगपति देखिये, प्रण परमानंद । बत भी साई मिले, दाद अति आनंद ॥ ८६ ४ तेन्न पुज ॥ दिसि दीपक तेज के, बिल घातो बिन तेल । हुँ दिसि सूरज देखिये, दाठू अद्भुत खेल ८७॥ 'ज क्वादि प्रकास है, रोम रोम की लार। दूं जेति जगदोस की, अंत न आते पार ॥ ८८ ॥ थै रवि एक अकास है, ऐसे सकल भरपर । दू तेज अनंत है, अल्लह आले* ज़रूर ॥ ८६ ॥ 'ज नहिं तह सूरज देख्या, चंद नहीं तहूँ चंदा । रे नाहे तहँ भमिलि।मलि देख्या, दादू अति जानंदा ॥€०/ दल नहि तहँ बरखत देख्या, सबद् नहीं गरजंदा । ।जर नहीं तहँ चमक देख्या, दादू परमानंदा ॥९१॥ . (१बिम्प, परवाही । २उच्च। ३ बिजले। 77
पर्चा को अंगे हि ।
“[दादू| जेतती चम्तके मिलिमिले, तेज पुंज परकास | .
अमृत मरे रस पीजिये, अमर बेलि आाकास ॥ ९२१
[दाद] अबिनासो अंग तेज का, ऐसा तत्त अनूप ।
से। हम देख्या नेन भारे, सुद्र सहज सरूप ॥ €३ ४
परम त्तेज परगट भया, तहँ मन रहा! समाहु ।
दादू खेले पीव सो, नहिं आबै नहिं जाइ ॥ <४ ॥
निराधार निज देखिये, नेनहें लागा बंद ।
तहँ मन खेले पीव सो, दाद सदा अनंद ॥ <२ 0४
ऐसा एक अनूप फल, बीज बाकला* ना[ह ।
मीठ। निर्मेल एक रस; दादू ननहेूँ माह, ॥ ९६ ॥
होरे हीरे तेज के, से। निरखे त्रय लेाय*।
के।ह इक देखे संत जन, और न देखे काय ॥ €७ ॥
नेन हमारे नर मा, तहाँ रहे लथो लाह । “
दादू उस. दीदार को, निस दिन निरखत जाई ॥ €८ ॥
नेनहें आग देखिये, आतम अंतर सेह ।
तेज पंज सब मरि रहा, झिलिमिलि मिलिपिलि हा हु ॥€«॥
अनहृद् बाजे बाजिये, जम्तरापुरी निवास ।
जाति सरूपी जगमगे, काइ नरखे निज दास ॥ १०० ॥ , परम तेज तहूं मन रहे, परम नर निज देखे ।
परम जेति तहें आतम खेले, दादू जीवन लेखे॥ १०१ ॥
[दादू] जरे से। जेतति सरूप है, जरे से। तेज अनंत ।
जरे से। फ़िलिमिलि नूर है, जरै से पंज रहंत ॥१०२ ०
२ चुकता, छिलका । २ लप्य लोयन, सोचन | त्रय लोय से - अभिप्राय शिव नेत्र या तीसरे तिल से है जिस-के खुलने पर दिव्य ढाष्ट दो जाती है।
५६ परचा को श्ंग
दादू अलख अलाह का, कहु केशधा है नर ।
दादू बेहद हद नहीं, सकल रह्या भरपूर ॥ १०३ ॥ बार पार लहे नर का, दाद तेज अनंत ।
कीमघि नहिं करतार की, ऐसा है भगवंत ॥ १०४ ॥ निरसंधि नर अपार है, तेज पंज सच माहि | दाद जेति अनंत है, आगे। पीौछी नाहिं॥ १०४५ ॥ खंड खंड निज ना भया, इकलस'* एके नर ।
ज्याँ था त्याँहीं तेज है, जेमति रही भरपर ॥ १०६ ॥ परम तेज परकास है, परम नर नीवास ।
परम जे।ति आनंद म, हंसा दाद दास ॥ १०७ ९ नर सरोखा नर है, तेज सरीखा तेज ।
जाति सरीखी जाति है, दादू खेले सेज ॥ १०८ ॥ तेज पंज को रूंदरो, लेज पंज का कंत ।
तेज पुंज को सेज परि, दादू बन्या बसंत ॥ १०६ ॥ पुहुप प्रेम बरिषे सदा, हरि जन लेलें फाग । - ऐसा कौतिग* देखिये, दाद मेहे रे माग ॥ ११० ॥
॥ अमी वर्षा ॥
झंम्ृत घारा देखिये, पारत्रह्म बरिखंत
तेज पंज मिलिमिलि फ़रैे, के। साथ जन पीयंत ॥ १ रस ही में रस बरख्ति है, चारा कोटि अनंत । तह मन नहचल राखिये, दादू सदा बसंत ॥ ११२ ॥ जे (वी
१ एकसा, यकसाँ। २ कौतुक । ३ बड़े ।
नी न न न्क्ाू॒
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पर्चा को अंग . पृ
धन बादल बिन बरिखि है, नीझूर निरमल घार। शदू भाजे आतमा, के साप्टू पीवनहार ॥ ११३ ॥ उसा अचरज देखिया, बिन बादल बरिखे मेह | - हहँ चित चाहग' हैं रह्मा, दादू अधिक सनेह ॥ ११९ 0 प्रहा रस मीठा पीजिये, अधिगत अलख अनंत । द्रादू निमेल देखिये, सहज सदा मरंत ॥ ११४ 0
॥ कामचेजु॥ . कामघेनु दुहि पीजिये, अकल अनूपम्त एक । इदू पीबे प्रेस सो, निर्मल चार अनेक ॥ ११६ ॥ झामघेनु दुहि पीजिये, ता कूँ लखे न कोइ । इंदू पीबे प्यास सो, सहारस सोठा सेह ॥ ११७ ॥ कामघेनु दुहि पीजिये, अलख रूप आनंद । इशादू पी हेत सों, सुपमन लागा बंद ॥ ११८ ॥ झामघेनु दुहि पीजिये, अग॒म अगेचर जाई । इाढू पौबे प्रीति सो, तेज पुज को गाइ 6 ११९ ॥ कामघेनु करतार है, अंम्रत सरवे र साह |... दादू बछरा दूध का, पोते लो सुख हा।ह ॥ १२० ॥ ऐसी एके गाइ है, दूक्ै * बारह समास। । से सदा हमारे संग है, दादू आतसम्त पास ॥ १२१ ४
। कअक्यबुच्ष॥ - . हु तरघर साखा मूल बिन, धरती पर नाहों ।
अधिचछ अमर अनंत फल, से। दादू खाहीं ॥ १२२ 0 तरवर साखा सूल- बिन, घर झंबर .न््यारा+*। अंशथनासो आनंद फल, दींदू का प्यारा ॥ २१२३४ .. ंाभथ्+पउ---+-------..00क्क्त ३ और
१ एक पत्ती जिस का केवल स्वाति चुद आधार है।. २ झजंड, अंडितीय | ३ झाप से आप चुवे । ४ हुह्दी जाय । ५ पृथ्वी और आकाश से न्यारो। " हि घट
पट, परंचा फो अँग:
सरवर साखा मूल बिन, रज बोरज रहिता * । अजरा अमर अतीत फल, से। दाठू गहिता॥ १२४ ॥ तरवर साखा मूल बिन, उत्तपति परलय, नाहिं । रहिता रमिता राम फल, दाठू नैनहूँ माहिं ॥ १२५ ॥ प्राण तरावर सुरति जड़, ब्रह्म भामि ता. माहि । रस पीवे फूले फले, दादू सूक्ते! नाहि ॥ ९२६ ॥ (प्रश्न ) ब्रह्म सुन्नि तहँ क्या रहे, आतम के अस्थान । काया अस्थल क्या बसे, सतगुर कहे सुजान ॥ १२० ॥ ( उत्तर ) काया के अरुथल रहे, मन राजा पंच प्रधान ।. पचिस प्रकिरती तीन गुण, आपा गजे गुमान ॥ १८ आतम के अस्थान हैं, ज्ञान ध्यान बेसासरे । सहज सोल संते।ष सतत, भाव भगति निधि पास ॥ १२८ ब्रह्म सुत्त सहेँ ब्रह्म है, निरंजन निराकार । नूर तेज जहेँ जाति है, दादू देखणहार .॥ १३० ॥ ( प्रश्न ) मौजूद खबर माबूद ख़बर, अस्वाह ख़बर जऔोजूद । मुकाम चि$ चीज हस्त दादनोी सजूद ॥ १३११ ॥
१ .__१ रहित, अलग २ सूखे। ३ विश्वास। ७ साथी २ए मे किम गए अलग २ सूखे। ३ विश्वास। ४ साली १३१ मुसलमानें की चार मंज़िलाँ--अर्थात शरीअत (९ कर्मकांड ) तरीद ( उपासना था भक्ति-), इकीकृत (शान | और मारिफृत ( विज्ञान )- हर प् के घाट या सुकाम्.का निर्णय 'करने की प्रार्थना फरता है कि कहाँ के घनी
में शिष्य शुरू
दृंडवत की जाय । जवाब आगे की साखियोँ में है।
परचा को अंग
॥ उत्तर | ॥ मोजूद मुकामे हस्त ॥ नफूस गालिब किन्र काबिज, गुस्सः मनी ऐश । दुईं द्रोगु हिस हुज्जत, नामे नेकी नेस्त ॥ १३२१ ॥ हैबवान आलिम गुमराह गाफिल, अव्वल शरीअ्षत पंद 4: हि है . श् ५ हलाल हराम नेकों बदी, दस दानिशमंद ॥ ११३२ ४ ॥ अरबाह सुकामे हस्त ॥ इश्क इबादत बंदगी, खबगानगी इखलास ! मेहर मुहब्बत खैर खूबो, नाम नेकी पास ॥ १९३४ *१ ॥ ॥ मावुद सुकामे दस्त ॥| यके नूर खूबे खूबाँ दीदनी हैराँ है अजब चीज़ खुदनी प्याले मरताँ ॥ १३५ १ ॥
१ सा० १३२- शरीभ्रत के बचुओं की घुर मंजिल उन की स्थूल देह ही (“भौज्ूद्”) है ओर उनके लक्षण यह है” कि मन के चस, अहंकार का रूप, क्रोध अपनपो ओर शारीरक सुख के ,ग्रुलाम, द्वेत भाव भूठ लोभ और हुज्ञत तकरार के रसिया, जिन के मन में नेकी था परोपकौर नाम मात्र नहीं है। [पं० चें० प्र« के पाठ में “ऐश” की जगह “एस्त” है जो अशुद्ध गद्दी” कद्दा जा सकता परन्तु हम को दूसरी लिपि का पाठ अच्छा लगा-दूसरी कड़ी के आख़िर द्विस्ले का अर्थ पंडित जी का ठीक नहीं है ]।
२ साौ० १३३--संलारी नर -पशु शरीअत के बँधुए एक तो उसकी शित्ता को लिये हुण. अचेत भटकते है' और दूसरे हलाल हराम नेकी षदी के जाल में जो, विद्या बुद्धि वालो ने विद्या यकखा है फस रहे है । |
३ सा० १३४--तरीकृत बालों की घुर मंज़िल उप फी आत्मा (“अरवाह! ) है ओर उनका मार्ग प्रेमा-सक्ति, सजन सुमिश्न, एक ही मालिक में निश्चय, और हर एक के साथ दया प्यार भलाई हमददी और नेकी का है। -
४ सा० १३५- हकीकत वालों" का इष्ट उन का परमेश्वर (“मावूद”) है जो ख़बों मे खूब और तेज का ऐसा पुज है जिस को देख कर आँखे चकरा और भव जातो है और जो भस्तों' अर्थात प्रेम नशेस च्यूर भक्तों के प्याले की झचरजी अमी रुप दारू है ।
६० पएरत्ाा को अंग
कुल्ल फारिग तके दुनियाँ, हर राज हरदम याद । _ अल्लह आले इश्क आशिक्र, दुरूने फरियाद ॥ १३६१ ॥ आब आतश जअशों कुरसी, सूरते सुबहान ।
सिर॑ सिफृत कर्दः बूदन, मारिफृत मकान ॥ १३० ॥ हकक्क हासिल नूर दीदम, करारे मकसूद ।
दीदारे यार जरबाह आमद, मौजूदे मोजूद ॥ १४८ ॥ चहार मंजिल बयाँ गुफतम, दस्त करदः बूद ।
पोराँ मुरीदोँ खबर करदः, राहे माबूद ॥ १३९ * ॥
पहिली प्राण पसू नर कीजे, साच फ्रूठ संसार ।
नीत अनीत मला बुरा, सुभ आखसुभ निरचार ॥ १४०॥ सथ् तजि देखि बिचारि करि, सेरा नाहीं काट ।
अन दिन राता राम सो, भाव भगति रस हाह ॥१४१॥ अबर घरती सुर ससि, साई सबले* लाबे अंग ।
जस कौरति करुना करे, सन मन लागा रंग ॥ १४२ ॥
..._ १ खा० १३६--मारिफ॒त वाले वह भ्रेमी हे” जो संसार को त्याग कर सब
प्रकार से संतुष्ट है", जिन को अपने प्रीतम फा निरंतर ध्यान लगा है और विरद और प्रेम की अंतर में पुकार उठ रहो है।
२ सा० १३७--पानी, ओग, आठवाँ आसमान (कुरसी) और नाँ आसमान (अर) जददाँ मालिक का तख़त है चद् उसी का ज़हर हैं जो मारिफ़त (विज्ञान) की मंजिल पर पहुँचे वह उस के भेद (सिर्र) की महिमा जानते है” | [इस साखी के अर्थ में पं० चं० प्र० ने बिल्कुल भूल फी है-दूसरी कड़ी में सिर - भेद की जगद् शरर 5 चिनगारी लिखा है, ओर अशे और कुरसी के मानी भी ठीक नहीं दिये गये है ]। हा .
हिल १श८--आखिर भे में ने जिल्गी फा माहसल ( घांछितफल) पाया अर्थात उस परम तत्व का प्रक त्म अर्थात कल यह की जन हे श प्रीतम के दर्शव म॑ लख पड़ा जो कि हस्तो की
४ साक्षी १२६-में ने चारों मंजिलों का भेद बता दिया, जैसा कि सत ने अपने शिष्यों को उपदेश किया है उस की फमाई करनी चाहिये । का
५ पूरा पूरा ।
परथा को अंग ६34
परम तेज तहेूँ मन गया, नैनहुँ देखया आह । सुख संतेष पाया चणा, जेतिहिं जेति समाह्द ॥१४३॥ अरथ चारि अस्थान का, गुर सिष कह्या समककाइ। मारग सिरजनहार का, प्ञाग बड़े से जाहइ ॥ १४४ ॥ अरवाह सिजदा कुनंद, औजूद रा थि कार | (३-४०) दादू नूर दादनां, आशिक दांदार ॥ १४४॥ अआशिकाँ रह कब्ज कद्ं:, दिले जाँ रफ़्तंद ॥ (३-६६) अलह- आले नूर दीदम, दिले दादू बंद ॥ १४६ ॥ आशिक़ाँ मस्ताने आलम, खुरदनी दीदार । चंद दिह थे कार दादू, यारे मा दिलदार ॥ १४५ १ ॥
॥ साक्ातकार ॥ दादू दया दयाल की, से क्यों छानो* हाह ।
" प्रेम पुलक रे मुलकत ४ रहै, सदा' सुहागिनि सेह ॥१४८॥ बिगसि जिगसि दरसन करे, पुलकि पुलकि रस पान । मगन गलित माता रहे, अरस परस मिलि आन ॥ १४६ ॥ [दादू] देखि देखि सुमिरन करे, देखि देखि ले लौन। देखि देखि तन मन बिले * , देखि देखि चित दीन ॥१४० निरखि निरखि निज नाव ले, निरखि निरखि रस पीवब ।
| नि, | ॥का
निरखि निरखि पिव को मिले, निरखि निरखि सुख जीव
है१४९ ॥ १ साखी १४७-प्रेमी जन खंसारी ऐश्वय को तुच्छु समभते हे”, उनकी प्रीत अपने प्रीतम से लगी है ओर उसी के दर्श अमी रस के आनन्द में संतुए और मतघाले यानी दुनिया से बेखवर रहते है । “द्ह” का अर्थ फारखी में गाँव यानी जायदाद है, पं० चं० प्र० की पुस्तक में “रह” दिया है जो अशुद जान
पड़ताहै। २शुत्त, दकी हुईं |३ मफुल्लित, मगन। ४ मुसकराती। ५ बिल्ाय जाय, लय हो जाय। -
/'
हे 'परचा को अंग
॥ आतम सुमिरण ॥ तन सौ सुभिरण सब करे, आतम सुम्तिरण एक । आतम आगे एक रस, दादू बड़ा बिबेक॥ १४९ ॥ [दादू] माटी के मेक्राम का, सब के जाने जाप । एक आध जअरवाह का, घिरछा आपे आप ॥ ९४३ ॥ [दादू] जब लगि असथल देह का, तब हंगि सब ब्यापे। निर्मे अस्थल आलमा, आागें रस आपे ॥ १४४.॥ जब नहिं सुरत सरोर को, बिछरे सब संसार । अआतम न जाणे आप केाँ, तब एक रहा निर्धार (१४५॥ तन सरों सुभिरण कीजिये, जब लगि तर नौका'। आतम सुमिरण ऊपजे, तबःलागे फोका । (आगे आपें उशप है, तहाँ क्या जीव का) ॥ १९५६ ॥
॥ झात्म दृष्टि ॥
चरम दृष्टि देखे बहुत, आतम दृष्टी एकि । ब्रह्म दृष्टि परिचय मया, तब दादू बेठा देखि ॥ १४७ ॥ येई नेनाँ देह के, येहे आसम होह । येई नैनाँ ब्रह्म के, दाठू पलठे दाह ॥ १४८॥ घट परिघे सब घट रखे, प्राण परोचे प्राण । ब्रह्म परीचे पाइये, दादू है हैरान ॥ १४९॥
॥ अंठतरी झराधना ॥ दादू जल पाषाण ज्यूं, सेवे सब संसार । दादू पाणो लृण' ज्यूं, कोइ बिरला पूजनहार ॥ १६० ॥ अलख नाँव अंतररि _कहै, सब घटिे हरि हरि हे।इ। दादू पाणी लृण ज्यू, नाँव कहोजे से|इ ॥ १६१३
१जब तक शरीर में ल्ाग है अर्थात तव-अधिमान है । २ नोव । -
परचा के अंग? ह्ड !ड़े सुरति सरीर कूँ, तेज पेज मे भाई । दू ऐसे मिलि रहे, ज्यें जल जलहि समाइ ५ ९६२ ॥ रंति रूप सरीर का, पिवर के परस हेाह। [दू तन सन एक रस, सुमिरण कहिये सेइ ॥ १६३ ॥ ।स हक्कत रामहि रह्या, आप विसर्जन हाई । [न पवना पंचोँ बिले,' दादू सुमभिरण सेह ॥ १६९ ॥ हूँ आतम राम सेमालिये, तहें दूजा नाहीं और ही आगे अगम है, दादू सूषिम ठौंर ॥:१६४-॥ र आतम से आतसमा, ज्यों पाणी मं लण । दू सन मन एक रस, तब दूजा कहिये छझूण ॥ ९६६ १ (नमन: बिलै याँ कोजिये, ज्यों पाणो मे लेण। गैव ब्रह्म एके. भथा, तब दूजा कहिये कण ॥ १६७ /
न मन बिले था कोजिये; ज्यों: घृत लागे घास । आरम कमल तह बंदगी,- जहें दादू परगट रास ॥ श्द्ट 0 ॥ अंतरी सुमिरण ॥
के(मल कमल तहें पेसि:करिं, जहाँ न देखे काइ । प्न थिर सुसिरण कीजिये, तब दादू दरसन-हैे।हु ॥:१६८ 6 नख सिख सब सुमिरण करे, ऐसा कहिये जाप । अंतरि बिगसे आतमा, सब दादू प्रगहे जाप ॥.१७० ॥ अंत्तगति हरि हरि करे,तघ मख की हाजत नाहि-। सहजे' धुन्नि लागो रहे, दादू मन हों माहि ॥ १०१ ॥ [दादू] सहज. सुमिस्ण हे'तत है, रोप्त- सेस-रफमि-राम । चित्त. चहूठ्या * चित्त सा, यों लीजे हरि नाम ॥ १०२ ॥ १ किल्लाय जाय, लय हो जाय । ९ चिपक |...
0 परंचा को अंगे द्रातू सुमिरण सहज का, दीन्हा आप अनंत । । ४ «५ अरस परस उस एक सो, खेले सदा बसंत ॥ ९७३ ॥ - 'दादू] सबद अनाहद हम सुन्या, नख सिख सकल सरीर मं ल् ले ३ छब घटि हरि हरि हात है, सहज ही मन थीर ॥ १०४ हुण दिल लागा हिक सा, में के एहो तास । दादू कंमि खुदाय दे, बैठा डीहे राति ॥ ९०४९ ॥ [दादू] माला सब आकार की, के।ह साधन सुमिरे राम करणोगर'* ते क्या किया, ऐसा तेरा नाम ॥ १९७६ ॥ सब घट मुख रसना करे, रहे राम का नाँव। दाहू पोवे राम रस, अगम अगोचर ठाँव ॥ १७० ॥ [दादू| मन चित इस्थिर की जिये,सी नख सिख सुमिरण हे।इ [का $ रे
रूवन नेत्र मुख नासिका, पंचो पूरे सेह ॥ १७८ ॥
0॥ साथ महिमा ॥ आतम्र आसण राम का, तहाँ खसे भगवान । दादू दून्यूँ परसपर, हरि आतम का थान ॥ १७०८ ॥ राम जपे रूचि साथ कॉँ, साथ जये रूचि राम । दादू दून््यूं एकटग,* यहु आरंभ यहु काम ॥ ९८० ॥ जहाँ राम तहें संत जन, जहें खाघ्लू तहूँ रास । दादू दून््यूं एकडे,* अरस परस बिसराप्त ॥ १८१ ॥
कत-> 5. 5 । [दादू] हरि साघ्त याँ पाइये, अविगत के आराघ। साध्र् संगति हरि मिल, हरि संगत थें साथ ॥ १८२ 0 १ मेरा दिल एक के साथ लग गया ओर इसी की फ़िकर है, दादू मालि
की सेवा में शत दिन बैठा रहता है। २ कृद्रत का रचनदार, करतार। ३ ए तार । ४ इकट्टे ।
तक
पेरंचा को अँग द्प [दादू] राम नाम सौ मिलि रहे, सन के छाडि बिकार। तो दिल ही माह देखिये, दन्य का दीदार ॥ १८३ ॥ साथ समाणा राम से, राम रह्या भरपूरि । दादू दून््यें एक रस, क्योकरि कोजे दूरि ॥ १८९ ४ [दादू | सेवग साईं का भया, तब, सेवग का सब कोाह । सेवग साह के मिल्या, तथ साई सरिखा हेाह ॥ १०४॥
. ॥ सतसखंग महिमा ॥ मिसरी माहेँ सेलि करि, सेल बिकाना बंस' । यों दाद महिंगा सथा, पारब्रह्म मिलि हंस ॥ १८६ ॥ मीठे माहे राखिये, से काहे न मोठा हाह । दाद मीठा हाथि ले, रस पीबे सब केाह ॥ १८७ ॥ ॥ सतझ्लंगति कुसंगति ॥ ' मीठे से मीठा भया, खारे सेँ खारा। दादू ऐसा जीव है, यहु रंग हमारा 0 शष्८ ॥ मोठे मीठे करि लिये, मोठा माहेँ बाहि। दादू मोठा है रहा, मोठे मांहिं समाह ॥ श्८८ ॥ रास बिना किस काप्त का, नहि कोड़ो का जी । साईं सरिखा है गया, दादू परसे पौव ॥ १९० 0 ॥ पारखेख अपारख ॥
हीरा कोड़ी ना लहै, स्रखि हाथ गँवार । पाया पॉरिख जोहरी, दाद मे।ल अपार ॥ १९१ 0 अंचे हीौरा परखिया, कोया कौड़ी तेल ।
१ बाँस का पनच जो मिसरी के कुझे पर लगा रहता है। दे
६६ परचा को अंग
मीर्रां कीया मेहर से, परदे भें लापद' | राखि लिया दीदार में, दादू भूला दर्द ॥ १९३ ॥ [दादू] नेन बिन देखिला, झंग बिन पेखित्ा, रसन बिन बेालिबा, ब्रह्म सेती । खबन बिन सुणिबा, चरण बिन चालिक्ा, चित्त ब्रिन चित्यबां, सहज एती ॥ ९८४ ॥ ॥ पतित्रत ॥ # ० दादू देख्या एक मन, से मन सब हो माहि । तेहि मन सेँ मसल सानिया, दूजा भादे नाहिं ॥ १९४ ॥ [दाद] जेहि घट दीपक रास का, तेहि घट लिमिरि न हेतह । उस उजियारे जे!ि के, सब जग देखे सेह ॥ १८६ ॥ दादू दिल अरबवाह का, से। अपणा हँसान । सेई स्थाचति" राखिये, जहें देखे रहमान ॥ १९७ ॥ अल॒ह आप इमान है, दादू के दिल माहि। से।ईं स्थाबति राखिये, दूजा कोइ नाहि ॥ १८८ ॥ ॥ अज्ञभव ॥ प्राण पवन ज्याँ पातला, काया करे कमाहु । दादू सब संसार मे, क्योँ ही गह्या न जाई ॥ १९6 ४ . नूर तेज ज्याँ जेतति है, प्राण प्यंडरे याँ हे।ह । दृष्टि मु आवे नहीं, साहिब के बसि से।ह ॥ ३०० काया सूषिम्त करि मिले, ऐसा कोहे एक । दादूं आतम ले मिलें, ऐसे बहुत अनेक ॥ २०१५ ॥ ... १'बेपरदा। २ खाबित, खावधान। ३ विह। 3 झा _: । २ सावित, सावधान | ३ पिड | ४ जिस के
देख या छू नहीं सकते । ५ धाला कोई बिरला हे परंतु
सावधान । ३ पिंड । ४ जिस को इन स्थूल इंद्वियो काया को ऊपर लिखी रीति से सूद्म करके मि काया के पात द्ोने पर मिलने वाले बहुत है ।
पर्चा के अँग ६७
आडा आतम तन घरैे, आप रहे ता माहि *।
आपण खेले आप सौ, जोवन सेती नांहिं॥ २०२ ॥ [दादू] अनमै थ आनेद् भया, पाया निभये नाँव । निहुचल निर्मल निर्बाण पद, अगम अगेचर ठॉव ॥२०३॥ दाद अनमै बाणो अगम को, लेगइ संग लगाह ।
अगह गहे अकहे कहे, अभेद भेद लहाड ॥ २०४ ४
जे फ़छ बेद परान थ, अगम अगेाचर बात ।
से। अनने साचा कहे, यह दाद अकह कहात ॥ २०४ ॥ [दाद] जब घटि अनने ऊपजे, तब किया करम का नास । भय भरम भागे सबे, पुरन ब्रह्म प्रकास ॥ २०६ ॥
[दाद] अनमे काटे राग को, अनहद उपजे आइ । सेफ्ले* का जल निमला, पीबे रुचि लथो लछाइ ॥ २०७ ॥ दादू बाणी ब्रह्म की, अनने घट परकास ।
राम अकेला रहि गया, खबद निरंजन पास ॥ २०८ ॥ जे कबहेँं समक्ते आतमा, ता दिढ़ गहि राखे मल ।
दाद सेफ्ना राम रस, झंसूत काया ऋलरे॥ २०८ ॥
[दादू] मुझ हो माहे से रहें, में सेरा घरबार।
मुझ हो माह में बसें, आप कहे करतार ॥ २१०४७ [दादू) में ही मेरा परख १ में, भें ही मेरा थान ।
में हो मेरी ठोर से, उप कहे रहमान ॥ २११ ॥
१ तन के सामने (आड़े) आत्मा को रबखे झर्थात तन की छुधि विसरादे और आप अत्मा ही में रत हो रहे ।१ २ सोत पोत। ४ राम रस तो सोत पोत अथवा सरना के समान है और काया कूल अर्थात नदो नाले के समान. जिस में बह अम्गृत वहता है। ४ अझशे >नवाँ आसमान ।
द््द परचा को अंग
[दादू] में ही मेरे आसरे, में मेरे आधार ।
मेरे तकिये में रहूँ, कहे सिरजलहार ॥ २९२ ॥
[दादू] में ही भेरो | जाति में, में ही मेरा अंग।
में हो मेरा जीव में, आप कहे परसंग ॥ २१३ ॥ [दाह्ू] सबे दिसा से। सारिखा' , सबे दिसा मुख बैन । सच्चे दिसा लवणहुँ सुणे, सबे दिसा कर नैन ॥ २१४ ॥ सबजे दिसा पश सोस है, सबे दिसा मल चैन ।
सूबे दिसा सनमुख रहै, सबे दिसा अँग ऐलन ॥ २१४५ ॥ बिन स्वण हुँ सब कुछ सुणै, बिन नैनहुँ सब देखे । बिन रसना मुख सब कुछ बे ले, यहु दादू अचरज पेखे ॥२१६' सब झऊँग सब हो ठौर सब, स्वेंगी सबे सार ।
कहे गहे देखे सुने, दादू सब दीदार ॥ २९० ॥
कहे सब ठौर गहे सब ठोर, रहे सब ठौर जे।ति परवाने नेन सब ठोर बैन सब ठोर, ऐन सब ठोर से|ई मल जाने ॥ सोस सब ठोर सखवन सब ठोर, चरन सब ठौर कोई यह माने अंग सब ठोर संग सब ठोर, सबे सब ठौर दादू ध्यान ॥२१५। त्तेज ही कहणा तेज हीं गहणा, तेज ही रहणा सारे ॥ त्तेज ही बैना तेज ही नैना, तेज ही ऐन |हमारे ॥ त्तेजही मेला तेज ही खेला, तेज अकेला तेज ही तेज संबारे तेज ही लेवे तेज हो देवे, तेज ही खेबे तेज ही दादू तारे॥२१९॥ नूरहे का घर नूरहे का घर, नूरहे का बरः मेरा । नूरहें मेला नूर्राह खेला, नूर अकेला नूरहि माँक बसेरा॥
$ सब दिशा उस के लिये बराबर हैं। २ पति |
परचा के झंग ६$
नूरहि का झेंग नूरहि का संग, नूरहे का रेग नेरा! । नूरहि- राता नूरहे माता, नूरहे खाता दादू तेरा ॥२२०॥ ॥ पिंडी (त्राकी) और त्रह्मांडी (नूरो) मन ॥ [दादू] नूरी दिल अरबाह का, तहाँ बसे माबूद॑ । तहँ बंदे की बंदगो, जहाँ रहे सो जूद॑ ॥ १२१ ॥ [दादू] नूरी दिल अरवाह का, तहें खालिक भरपूर। आले नूर अलाह का, खिद्मतगार हजूर ॥ १२२ ॥ [दादू] नूरी दिल अरवाह का, तह देख्या करतार। तहें सेलग सेवा करे, अनंत्र कला रवि सारं ॥ २९२३ 0 [दादू ] नूरी दिल अरबाह का, तहाँ निरंजन बासं। तहें जन तेरा एक पण, तेज पुंज परकासं ॥ २२४ ॥ [दादू] तेज केबल दिल नर का, तहाँ राम रहसान*। तह करि सेवा बंदगी, जे तूँ चतुर सयानं ॥ २२४ ॥ तहाँ हजूरी बंदगी, नूरी दिल में होड़ । तहें दादू सिजदा करे, जहाँ न देखे काइ ॥ ररद ॥ [दादू] देही माह दाह दिल, हक खाकोी इक नूर । खांको दिल सूफे नहीं, नूरो मंभ्ति हजूर ॥ र२७ ॥ ;ल् ॥ नमाज़ सिजदा ॥ [दादू] हैदर हजूरो दिल ही भीतर, गुरु७४ हमारा सारं। उजू* साजि अलह के आगे, तहाँ निमाज गुजारं ॥ २२८ ॥ [दादू | काया मस्तोस* करि पंचजमाती*, मनही मुला इमाम॑। जाप अलेख इलाही आगे, तहें सिंजदा करे सलाम ॥२२९॥ हर १५“नेर” न्पास,निकर | पं०चं० प्र के पांठ में “मेरा” है। २ दूयाल ३होज़ ८ कुड ४ स्तान । ५ वज्ञ मुसलमानों में नमाज़ पढ़ने के लिये करते हैं जिसमें पहले तो
पानी से दोनों हाथों को धोते हैं, फिर कुल्ली करते है” फिर पेशानी (माथा) पूरा चिहरा बाद और आद्िर में पाँव को घोते है । ६ मस्जिद । ७ पाँच फिकें मुसलमानों के।
७० परचा को अंग
[दाद] सब तन तसबो' कहे करीमं, ऐसा कर ले जाप राजा एक दर करि दा, कलमा आपे आपं॥ २३० ॥ [दाद] अठे पहर अलह के आगे, इक्र टराः रहिबा ध्यान आापे आप अरस फे ऊपर, जहाँ रहे रहमान ॥ २३१ ॥ अठे पहर इबादसी, जीवन मरण निबाहि। साहिब दर सेवे खड़ा, दाद छाड़ि न जाह ॥ २१२ ॥ ७... साथ महिमा ॥
अठे पहर अश्स मं, ऊभे हे आहे। दाद पसे तिन खे अला, गाल्झाये ॥ २३१९ ॥ अंडे पहर अरख से, बेठा पिसे पसल्धि । दाद पसे तिन खे, जे दांदार लहन्धि ॥ २३४+ ॥ अठे पहर अरस में, जिन््हों रूह रहन्ति। दाद पसे तिन खे, गर्षूयं गाल्ही कब्ति ॥ २१४४ ॥ अछझे पहर अरस मं, लडींदा आहिन । दाद पसे तिन खे, असा खबरि डिन्ह ॥ २१६* ॥ अठे पहर अरख में, वंजी जे शाहिल । दाद पसे तिनखे, किले हे आहिन ॥ २३७६ ॥ .._ १ झुमिरनी | मर ओ
२ साखी २४३--अज्ञाह आठ पहर नव आसमान (अर्श) में खड़ा हो है, ज॑ डस को देखते है सो उस से वात चीत करते
३ सा० २३४-प्रीतम (पिरी) आठ पहर अर्श म बैठ। देखता है, जो उस के देखते है. उन को दर्शन मिलते है ।
४ सा० २३५--जिन की सुरति आठ पहर अर्श में रहती है वह उस को देखे है और उस से शुप्त वात चीत करते है
५ सा० २३६--जो आठ पहर अर्श में कूल रहे हैं वह उस को देखते है औ “हम को ख़बर देते है
द सा० २३७ -जो आठ पहर श्रर्श में जाकर रहते है जो उस को देखते हैं चुद कितने (कहाँ ?) है । ,
पर्चा फो अंग .. ७६
॥ प्रेम पियाला ॥ प्रेम पियाला नर का, आखिक सरि दोया । दाद दर दीदांर में, मतवाल॥ कोया ॥ शशे८ 0 इसक सलेना आसिका, दरणह थे दीया । दर्द मोहब्बत प्रेम रस, प्याला सरि ऐोया ॥ २३९ ॥ दाद दिल दीदार दे, मतबाला कौया । जहूँ अरस इलाही आप था, अपना करि लोया ॥२४०॥ दादू प्याला नूर दा, आसिक अरस पित्रन्नि । अठे पहर अल्लाह दा, मेंह दिल्ठे जीवन्ति ॥ २४१ ॥ आखिक अमली साथ सब, अलख दरीबे जाई । साहिब दर दोदार भ, सब मिलि बैठे [आह ॥ २४२ ॥. राते माते प्रेम रख, मरि प्वरि देह खदाह । मस्तान मालिक करि लिखे, दाद रहे ल्थी लाह ॥२४३॥
“> ॥ झअथाह भक्ति॥
[दादू] मगसि निरंजन राम को, अविचल अविनासो। सदा सजोबल उशसमां, सहज परकासोी ॥ २०० ॥ [दाद] जेसा रास ऊपार है, तैसी सगति अभाघ । इन दून््यू की मित* नहीं, सकल पक्रारें साथ ॥ २४४ 0 [दाद] जेसा अविगत राम है, तैसी भगति अलेख । इन दून््य को-सित्त नहीं, सहस सखाँ कहै सेस ७ २४६ 0 [दाद | जेसा निर्गण राम है, तैसो मगति निरंजन जाणि। इन दून््य को मित्त नहीं, संत कहे परवाणि' ॥ २४७ -॥ [दादू) जेसा पुरा राम है, तैसी प्रण पम्रगति समान ! इन दून््यें को मित्र नहों, दाद नाहीं जात ॥ २४८ ॥। गज १ हद, अंदाज़ा | २ प्रभाण।
७ पश्चा को अँग
॥ निरंतर सेचा ॥ दादू जब लग राम है, तब्च लग सेवग हो । अखंडिस सेवा एक रस, दादू सेवग सेह ॥ २४९ ॥ दादू जेसा राम है, तैसी सेवा जाणि। पावैगा सब करेगा, दाद से। परवाणि ॥ २४०॥ [दादू] साई सरीखा सुभिरन कौजे, साईं सरीखा गावे । साई सरोखो सेवा कोजे, तब सेवग सुख पावे ॥२५१॥ [दादू] सेवग सेवा करि डरै, हम थे कदछू न हाइ । तूँ है तैस बंदगर, करि नहिं जाणे कोइ ॥ २४२ ७ [दादू] जे साहिब माने नहीं, तऊ न छाडों सेव । यहि जवलंबनि' जीजिये, साहिब अलख अभेव ॥ २५३ ॥ आदि अंत आगे रहे, एक अनूपम देव । निराकार निज निमेला, कोई न जाणे लेव ॥ २४४ 0 अविनासी अपरंपरा, वार पार नहिं छेव*। से तें दादू देखि ले, उर अंतरि करे सेव ॥ २४४ ॥ दादू भौतरि पैसि करि, घट के जड़े कपाट । साईं की सेवा करे, दादू अविगत घाट ।॥ २४६ ॥ घट परिचय सेवा कर, प्रत्तषिरे देखे देव । अविनासी दूर्सन करे, द।दू पूरी सेव ॥ २४० 0 पूजणहारे पासि है, देही माहेँ देव । दादू ता काँ छाडि करि, बाहरि माँडी सेव ॥ २४८ ॥
१ आखरा, आधार। २ झंत। ३ प्रत्यक्ष ।
परचा को अंग
॥ पर्चय ॥ दादू रमता राम सो, खेले अंतर माहि । 'उलहि समाना आप में, से सुख कलह नाहि ॥ २४८ [दादू] जे जन बेघे प्रीत सो, से। जन सदा सजीब । उलटि समाने आप में, ध्यंतर नाहों पोष' ॥ २६० ॥ परघट खेले पीव सो, अगम अगेचर ठाँव । एक पलक का देखणा, जिवन मरण का नाव ॥ २६१ | आतम माह राम है, पंजा ता को हो । सेवा बंदन आरती, साथ कर सब कोइ ॥ रद ॥ परचदइ सेवा आरती, परचदह भेग लगाइ । दादू उस परसाद को, महिला कहो न जाई ॥ १६३ ॥ माहि निरंजन देव है, माहे सेवा हाई । माहि उसारे आरती, दादू सेवग सेहइ ॥ र६९ ॥ [दादू |] माहै कीजे आरती, माह पूजा हाह । माहै सतगुरु सेविये, बूक्े बिरला काह ॥ २६४ ॥ सतत उत्तारं आरतो, तन मन संगरूचार । दादू बलि बलि वारणे' , तुम पर सिरजनहार ॥ २६६ दादू अबिचल आरती, जग जग देव अनंत । सदा अखांडइत एक रस, सकल उतार संत 0 २६७ ॥
॥ सॉँज ॥ सति राम आत्मा बेश्नो,. सुबरृुधि भेमि संततेष थान । मूल सत्र मन साला, गर सिलक सर्ति संजम ॥ सोल सुच्या ध्यान जेजसी, काया कलस प्रेम जल । भनसा माँद्र निरंजन देव, आतूमा पाती पुहुप प्रोति
र अंतर >परवा -प्रीतम से फूक या पर्दा नहीं रद्द गया। २ बलिदारी | ५०
७४ परणचा को अंग
चेतना चंदन नवधा नॉँव, साव पूजा मति पात्र ।
सहज समपंण सबद् घंटा, आनंद आरतो दया प्रसाद ॥
अनिनि' एकद्सा तोरथ सतसंग, दान उपदेस ब्रत सुसिरन।
खट गुन ज्ञान अजपा जाए, अनभे आचार मरजादा राम॥.
फल दरसन अभिअंतरि, सदा निरंतर सति सो ज- दादू वर्तते।
आत्मा उपदेस, अंसरगरति पूजा ॥ शदृ८ ॥
पिव सौ खेलों प्रेम रस, ती जियरे जकर हाइ ।
दादू पावे सेज सुख, पड़दा नाहों केाइ ॥ २६५ ॥
सेवग बिसरे आप को, सेवा बिसरि न जाइ।
दादू पूछे राम कौ, से तत कहि समभ्काइ ॥ २०० ॥
ज्यों रसिया रस-पीवताँ, आपा भूले और ।
यों दादू रहि गया एक रस, पीवत पीवत ठौर ॥ २७१ ॥
जहेूँ सेवग तहँ साहिब बैठा, सेवग सेवा माहि ।
दादू साईं सब करे, कोई जाणे नाहिं ॥२०२॥ '
[दादू] सेवग साई बस किया, सौंप्या सब परिवार ।
सब साहिब सेवा करे, सेवग के दरबार ॥ २७३ 0
तेज पंज के बिलसणा, मिलि खेले इक ठाँव ।
मरि भरि पोबे राम रस, सेवा इस का नाँव ॥ २७४ 0
अरस परस मिलि खेलिये, तब' सुख आनंद हाह।
सन सन मंगल चहुँ दिसि भये, दादू देखे सेह ॥ २०४ । ॥ सुहाग ॥ -
मस्तक मेरे पाँव घरि, संदिर माह आवब।
सहया सेवे सेज पर, दादू चंपे पाँव ॥ २७६ ॥
..._३ “अन्य अर्थात केवल एंक जिस में दूसरे को गुजाइश न हो। २ आचार चैन, इ " गुजाइश न हो । ३ चैन, इंतमीनान | हो। २ आचार
जज
पर्चा की अंग
थे चारिउे पद पलेंग के, साई के सुख सेज ।
दादू हन पर बेसि करि, साह सेतीं हेज' ॥ २७७ ॥ प्रेम लहरि की पालकी, आतम बेसे आइ । दादू खेले पोष सो, यहु मुख कह्या न जाह ॥ २
॥ सॉज ॥ [दादू) देव निरंजन पूजिये, पाती पचर चढ़ाइ।
तन मन चंदन चरचिये, सेवा सुरति लगाई ॥ २५ सगति भगति सब के कहे, भगति न जाणे क्राइ
दादू मगति भगवंत की, देह निरंतर हाह ॥ एंपए० ॥ देहों माहे देव है, सब गण थ न्यारा। | सकल निरंतर भरि रहां, दादू का प्यारा ॥ २८१ ॥
- जीव पियारे रास को, पाती पंच चढ़ाहु।
तन मन मनसा सॉँपि सच्च, दाद बिलमर न छाइ ॥ ए८२ ॥ ॥ ध्यान ॥ *
सबद सुरति ले साजि चित, तन मन सनसा माहि ।
मति बच्चि पंचों आतमा, दाद अनत ने जाहि ॥ २८३।
[दादू]) तन मन पवना पंच गहि, ले राखे निज ठोर । जहाँ अकेला आप है, ठजा नांहीं और ॥ २८० ॥
[दादू] यहु मन सुरति समेठ करि, पंचअपूठे ज्याणिरे ॥ निकट निरंजन लागि रह, संगि सनेंही जाणि॥ २८४ ॥
मन चित सनसा आतमा, सहज सुरति ता माहि . दादू पंचों पूरि ले, जहँ घरती झंबर नाहि ॥ र८६ ॥ 'दादू भोगे प्रेम रस, सन्त पंचें का साथ । दम ; “गन भये रस में रहे, सब सनमुख तिश्ुुवन नाथ ॥२८७
१ देत। २ देर। ३ सन . ओर छुरति.को समेंद कर पंच इंद्रियोँ को पीछे (अपूठे) डाल दो ।
७६ परचा को अंग
[दाहू] सबदेँ सबद समाइ ले, पर आतम्त सौँ प्राण ।
यहु मन मन सौँ बाँघि ले, चित्ते चित्त सुजाण ॥ रृष८।
[दादू] सहज सहज समाह ले, ज्ञाने बंघ्या ज्ञान ।
सुत्र! सुत्र समाह ले, घ्यानें बंघ्या घ्यान ॥ शधू८ ॥
[दू] दुए दृष्टि समाइ ले, सुरतें सुरति समाह । ,
समफे समझश्ि समाई ले, ले से ले ले लाइ ॥ २४० ॥
[वादू] भार्बें' क्लाव समाह ले, भगतें भगति समान ।
प्रेमें प्रेम समाह ले, प्रीति प्रीति रस पान ॥ २१ ॥
[दाद] सुरतें सुरति समाह रहु, अरु बैनहुँ साँ बेन ।
मन ही से मन लाइ रहु, अरू नेनहुँ साँ नेन ॥ २६२
जहाँ राम तहेँ मन गया, मन तहेँ नेना जाहू ।
जहें नेना सहँ आतमा, दादू सहजि समाइ ॥ २८३ ॥
॥ जीवन मुक्ति ॥ ा
प्राण न खेले प्राण साँ, सन ना खेले मन ।
सब॒द् न खेले सब॒द सौ, दादू राम रतन ॥ २८४ ॥
चित्त न खेले चित्त साँ, बेन न खेले बेन ।
नैन न खेले नन सौं, दादू परचट ऐन॥ २८४ ॥
पाक न खेले एाक से, सार न खेले सार ।
खूब न खेले खूब सौ, दादू तंग अपार ॥ २९६ ॥
नूर न खेले नूर साँ, तेज न खेले तेज ।
जाति न खेले जाति सेँ, दांदू एके सेज* ॥ २९७ ॥
[दादू] पंच पदारथ समन रतन, पवणा माणिक हाह ॥
अरातस हीरा सुरति सेँ, मनसा मेतती पेह |) २९८। " श्शोत्रल्कान १पलुँग।....... ॥
पर्चा को अंग 3
अजब जनूप॑ हार है, साहू सरिखा सेइ । दांदू आतम राम गलि' , जहाँ न देखे कोइ ॥ र्एं८ ॥ [दादू] पंचाँ संगी संगि ले, आये आकासा । आसण अमर अलेख का, निर्गुण न्नित बासा ॥ ३०० ॥ प्रण पतन मन सगन हैं, सेंगि सदा निवासा । परथा परम दयाल सौँ, सहजें सुख दासा ॥ ३०१ ॥ [दादू] प्राण पवन सन सणि बसे, त्रिकुटी केरे संधि । _ पंचो इंद्री पी७ सो, ले चरणोँ बंधि ॥ ३०२ ॥ प्राण हमारा पीच सौ, यो लागा सहिये । पुहप बास चूत दूध में, अब का सो कहिये ॥ ३०३ ॥ चाहन लेह बिचि बासदेव, ऐस मिलि रहिये । दादू दीनदयाल से, संगहि सुख लहिये ॥ ३०४ ४ [दादू] ऐसा बड़ा अगाघ है, सूषिम जेसा अंग । पुहप बास थ पातला, से सदा हमारे संग ॥ ३०४ ॥ [दादू | जब दिल मिला द्याल सैँ, सब अन्तर कुछ नाहिं। ज्यों पाला पाणो के मिल्या, त्योँ हरि जन हरि माहि ॥ ३०६॥ [दादू | जब दिंल मिला दयाल सौँ, सब सब पड़दू। दूरि। ऐसे सिलि एके भया, बहु दोपक पावक पूरि ॥ ३०७॥ [दांदू| जब दिल मिला द्याल सौँ, तब असर नाहीं रेख । नाना बिघधि यहु स्ृषणाँ, कनक कसोटो एक ॥ ३०८॥ [दादू | जब दिल मिला दयाल साँ, सर पलक न पड़दा के हु । डाल सूल फल बोज से, सब सिलि एके हाइ ॥ ३०६ ॥ फल पाका बेली तजी, छिटकाया मुख माहि । ह १्गलेम। नर
जज
छ् पंरचा को अंग
[दादू] काया कठारा दूध मन, प्रेम प्रोति सो पाह। हरि साहिब यहि थबिथि अंचवे, बेगए बार न हाइ ॥३११ ठगा ठगी जावण मरण, ब्रह्म बराबरि होह-। -' परघट खेले पीव सो, दाठहू बिरला कोइ ॥ ११२ ॥ '
५ ॥ प्रेम प्यांला ॥ दादू निवारा ना रहै, ब्रह्म सरोखा हाट । ले समाधि रस पीजिये, दादू जब लगि दाह ॥ ३१३ ५ बेखुद खबर हुशियार बाशद, खुद ख़बर पामांल । , बेकीमती मस्तान: गलताँ, पूरे प्याले खाल ॥ ३९४२ ॥ दादू माता प्रेस का, रस में रह्मा समाह । अंत न आवबे जब लगें, तब लगि पोवत जाह ॥ ३९५ पीया तेता सुख भया, बाकी बहु बेराग । ऐसे जन थाके नहीं, दादू उनमन लाग ॥ ३९१६ 0 निकट निरंजन लागि रहु, जब लगि अलख :अभेव । दादू पीचवे राम रस, निहकामी निज सेव ॥ ३९६७ ॥ राम रटनि छाड़े नहीं, हरि ले लागा जाई । बीच हीं अठके नहीं, कला कोटि दिखला&8५४॥ १९८ ॥ दादू हरि रस पीव्ताँ, कबहूँ अरूचि न होड़ । पीवत प्यासा नित नवा* , पीवणहारा से ॥ ३६६८६ (
१ एक तार, टकटकी। २ न््यारा, दुर। ३ साखी ३१४- दरअसल वह हुशियार (खेत) है जो अपनी ख़बर से बेखबर है यनी अपने तन मन की सुध विसर गया है--जिस की अपने तन भन की ओर निगाह है (जो ख़द् ख़बर है -बही बेहोश श्र जुलील (पॉमाल) है-ऐसा अनमोल जन मालिक फी याद् ६ नशे के (प्रकाशनूर प्यालै ख्याल) में मतवाला व भ्ूमतां रहता है। ४ अभ्यासी क॑ रास्ते में बड़े मंन- ललचाचन चमत्कार व कौतुक दोख पड़ेँगे उन में अट कना
चाहिये । ५ नया | दे हरि रस पीने से कभी अघाय नहीं ; पीनेवाला उसी क जाम है जिसे हर घूट के सतथ नई प्यास जगै |
परेधा की अंगं॑ - | ७६
[दाद] जैसे खबणाँ देह हैं, ऐसे हाँहि अपार ।
' रामकथा रस पीजिये, दाद बारंबार ॥ ३२० ॥
जैसे ननाँ दाह है, ऐसे होँहि अनंत ।
दादू चंद चकार ज्याँ, रस पीने भगवंत ॥ ३२९१ ॥ ज्ये रसना मुख एक है, ऐसे होँहि अनेक ।
तो रस पीजे सेस उ्याँ, याँ मुख मीठा एक ॥ ३४२ ॥। ज्याँ घदि आतम एक है, ऐसे होहि असंख ।
भरि भरि राखे रास रस, दाद एके श्यंक ॥ ३२३ ॥॥ ज्यों ज्यों पोते राम- रस, त्यों त्थों बढ़े पियास । ऐसा केाई एक है, बिरलां दादू दःस ॥ ३२४ 0४
राता माता राम का, मतवाला महमंत्त ।
दादू पीवत क्यों रहे,' जे जुग जाहि अनंत ॥ ३२४ ॥ » दादू निर्मेल जेति जल, बरिषा बारह मास।
तेहि' रस, राता प्राणिया, माता प्रेम पियास ॥ 3२६ 0४ रोम रोम रस पोजिये, एतो रसना है।इ ।
दादू प्यासा प्रेम का, थो बिन पति न होइ ॥ ३२० ॥ तन गृह छाडे लाज पति, जब रस माता होह।
जब लगि दादू सावधान, कदे' न छोडे काह ॥ श्र८ ॥ अआँगणि एक कलालरे के, मतवाला रस माहि ।
दादू देख्या नेन भारि, सा के दुबिधा नाहि ॥ शेर ॥ पीचतस चेतन जब लग, तब लगि लेबे आइ।
जब माता दादू प्रेम रस, तब काहे को जादू ॥ ३३० ॥ दादू अंतर आतमा, पीवबे हरि जल नोर।॥
साज५ सकल ले उहुरै, निर्मल हाह सरीर ॥ ३३१ ॥
१ पीने से क्यो रुके । २ कभी । ३ सतगुद। ४ शोच> सफाई ।
८० प्य्चा को अंग
दाद मीठा राम रस, एक घट करि जाइ । पणग'* न पीछे को रहै, सब हिरदे माहिं समाह॥ ३३२॥ चिड़ी चंच भरि ले गहं, नीर निघर्टि नहि जाइ ! ऐसा बासण ना किया, सब दरिया माहि समाहई॥ ३३ ॥ दाद अमलो राम का, रस बिन रहा न जादू । पलक एक पावे नहीं, तो तबहि ललफि मरि जाइ॥३३४॥ दांद राता राम का, पीबे प्रेम अचाइ । मतवाला दीदार का, माँगे मक्ति बलाह ॥ ३३५ 0 उज्जल भेंवरा हरि केंत्रल, रस रूचि बारह मास । पीवे निर्मेल बासना, से! दाद निज दास ॥ ३३६ ॥ नैनहूँ सो रस पीजिये, दाटू सुरति सहेत । तन मन मंगल होत है, हरि सो लागा हेत ॥ श्३ण॥ पित्रे पिलाबे राम रस, माता है हुसियार । दाद रस पोवे घर्णा, ओरेोँ का उपगार ॥ ३३८ ॥ नाना बिछदि पियां राम रख, केतो भाँति अनेक । दादू बहुत बिसेक सो, आतस अविगत एक ॥ ३३८ ॥ परचे को पयरे प्रेम रस, जे के पीबे मतवाला माता रहै, याँ दाद जीवे ॥ ३४० ॥ परचे का पय प्रेम रस, पोते हित चित छाइ। मनसा थांचा कमेता, दादू काल न खाह ॥ ३७१ ॥ परचे पीते राम रस, जुग जुग हस्थिर हाह । दादू अविचल आतमा, काल न लागे कोइ ॥ ३४२ ॥ परचे पीवे राम रस, से। अबिनासो अंग । काल म्ोच४ लागे नहीं, दादू साई संग ॥॥ ३४३ ॥।
१ तनिक, कुछ । २ विषेक । ३ दूध । ४ भौत!
पश्चां का झंग, . छ्र्
परचै पीवै राम रस, सुख में रहे ससाइ ।
: मनसा बाचा कमना, दांदू काल न खाइ ॥ ३४४ ॥
परचे पीवे राम रस, रासा सिरजनहार ।
दादू कुछ ब्यापे नहों, ते छूटे संसार ॥ ३४५ ॥
अमृत सेजन रास रस, काहे न बिलसे खाई ।
काल बिचांरा क्या करे, रमसि रमि राम समाह ॥ ३१४६ ॥ ॥ सजीघन ॥
[दादू] जिब अजया' बिच" काल है, छेली जाया सेह ।
जब कुछ बस नहिं काल का, तब मीनी * का मुख हे।ह ॥३४५।
मन लौरू» के पंख है, उनमन चढ़े अकास।
पग रहि पूरे साच के, रोपि" रह्या हरि पास ॥ ३४८ ॥
तन सन बिरष बबूल का, काँठे लागे सूल ।
दांदू माखण है गया, काहू का अस्थूल ॥ ३४६ ॥
दादू संखा" सबद है, सुनहा" संसा+ सारि।
मन मींडक सो मारिये, संक्य*'सर्प निवारि॥ ३४० 0
दादू गॉम्को' ज्ञान है, भंजन!* है सब लेक ।
रास दूध सब मरि रह्या, ऐसा अस्त पेंष ॥३४१ ॥
दादू कूठा जीव है, गढ़िया गेाबिंद बेन ।
मंसा मंगो*२े पंख सो, सुरज सरीखे नैन ॥ ३४२ ॥
साह दीया दस** घर्णा, तिसका वार न पार ।
दादू पाया राम घन, भाव प्रगति दोदार ॥ ३४३ ॥
॥ इति परचा फो अंग समाप्त | ७ ॥
रत... | “रख ख <उस्उ॒॒॒य॒॑////[[[/[/[/[7़ख़ख़£़ ९ बकरी ॥४ भेड़िया | ३ सिन्नी; विदली। ४ पत्ती । ५ जमाना, लगाना | ५ बृद्ध।७ सिंह। ८ कुत्ता ।& संशय, चिंता। १० शंकान्डर। ११घी। ९९ भाजन >वरतन । १६ हरा । १७ दात, घखशिश । 044
हि जरणा फे अंग
५-जरशा' को अग [दादू] नभे। नसे। निरंजने, नमस्कार गुर देवतः । घंदन से साथवा, प्रणाम पारंगत: ॥ १॥ के साथ राखे रास घन, गर बाइक बचन बिचार। गहिला दादू क्यों रहे, सरकत हाथ गँवार ॥ २*॥ : [दाद] मन हीं माह समक्रि करि, मन हीं माहिं समाह मन हों माह राखिये, घाहरि कहि न जणाह ॥३ ॥ दादू समक्ति समोह रहु, बाहरि कहि न जणाह |: दादू अद्भुत देखिया, तहूँ ना के आबे जाहइ 0छ॥ कहि कहि क्या दिखलाइये, साई सब जाणे। दाद परचट का कहे, कुछ समम्कि सयाणे ॥४५॥ दाद सन ही माह ऊपजे, मनही माहिं समाह । मन हीं माह राखिये, बाहरि कहि न जणाह ॥ ६ ॥८ ले बिचर लागा रहे, दादू जरता जाह। - कबहूँ पेट न आफरे,रे भात्रे तेता खाहइ ॥ ७ ॥ जिन खेोबे दाद राम घन, रिदरे राखि जिनि जाह।- रतन जतने करि राखिये, चिंतामशि चिश्र लाह ५८१ सेहे खेबम सब जरैे, जेली उपजे आह |. कहि न जणावे जौर को, दाद माहिं समाहु ॥ ९ ॥ से।ह सेलतणन खब जरैे, जेता रस पीया | ह दाठढू गुर गँीर का, परकास न॑ कीया ॥ १० ॥
१ जरणा शुजराती- भाषां भे जरंबु- शब्द: से बना है, इस का अर्थ पचाना हज़म करना, घारण करना, गुप्त रखना, शांति, क्षमा इत्यादि है-पं० ऋ॑ंद्विक। प्साद् । ६ फेाई विरला सांधू गुर बचन के बिचार कर नांम रूपी घन के।| सस्हाले रखता है; यद्द धन मुजा के पास नहीं टिकता जैसे गँवार के पल्ले रत्न [मणर्कत > पन्ना] । ३ अफरे, फूले। ४ मूढ़, गुप्त ।
अरणा को शझंग है छू
साई सेवग सब जरै, जे ,अलख लखाबा ।
'दादू राखे रामचन, जेता कुछ पावा 0 १४७
सेई सेवग सब जरे, प्रेम रस खेला ।
दादू से सुख कस कहे, जहँ जाप अकेला ॥ १२॥
सेह सेवग सब जरे, जेता घढठ परकास ।
दाद सेवग सब लखे, कहि न जणाबे दाख ॥ १३ ॥ अजर जरै रसना फ्ररे, घटि माहि सम्तावे।
दादू सेवग से। भला, जे कहि ल जणावे ॥ १४ ७ अजर जरे रसना भरे, घट अपना भरि लेह ।
दादू सेवगे से! भला; जारे जाण न देह ॥ १४ ॥ अजर जरैे रसना भरे, जेता सब पोवे ।
दादू सेवग से-भला, राखे रस जीबे ॥ १६ ॥
' अजर जरे रसना भरे, पोवत थाके नाहि ।
दादू सेवन से। भला, भरि राखे घर माहि ॥ १० ॥
जरणा जेागी जगि ज्ञुगि जीबे, भ्रणा भरि मरि जाह
दादू जेगी गुरमुखो, सहज रहे समाह ॥ १८॥
जरणा जोगी ज॒भि रहे, करणा परले हाह ।
दादू जेगी गरमखी, सहजि समाना सेोह ॥ १६॥ _ जरणा जेगी थिर रहै, करणा घट फूदे । ०
दादू जेगो गुरमुखो, काल थ छूठे ॥ २०७ द
जरणा जेगो जग-पसौ, अधिनासी अवध्चुत ।
दादू जोगी गरसखी, निरंजन का परत ॥ २१ ॥
जरे सु नाथ निरंजन बाबा, जरै सु अलूख अभेव ।
जरे सु जोगी सब को जीवन, जरे सु जग स॑ देव ॥ २२
ड्छ जरणा के फ्ंध ।
जरै सु आप उपावनहारा, जरे सु जग-पति साई । जरैे सु अलख अनूप है, जरे सु मरणा नाहीं ॥ २३ ॥ जरे सु अविचल राम है, जरे सु अमर अलेख । जरै सु अविगत आप है, जरै सु जग में एक ॥ २४ ॥ जरे सु अविगत जाप है, जरे सु अपरंपार । जरे सु अगस अगाघ है, जरे सु सिरजनहार ॥ २४॥ जरै सु निज निरकार है, जरै,सु निज निर्धार । जरे सु निज निर्गुण महे, जरे सु निज्र तत सार ॥ २६ ॥ जरैे सु पूरण ब्रह्म है, जरे सु पूरणहार । करे सु पूरण पश्स गुर, जरे सु प्राण हमार 0 २० ॥ [दादू| जरै सु जेशसि स्वरूप है, जरे सु तेज अनंत ! जरे सु मिलिमिलि नूर है, जरै सु पंंज रहंत ॥ २८५ [दादू] जरै सु परम प्रकास है, जरे सु परम उजास । जरे सु परम उदीत है, जरैे सु परम बिलास ॥ २९ 0७ [दादू | जरे सु परम पगार है, जरे सु परम बिगास | जरे सु परम प्रभास है, जरे सु परस निवास ॥ ३० 0 [दादू | एक बेल भूले हरी, सु कोइ न जांणै प्राण । अओऔगुण मन आणे नहीं, और सब जाणै हरि जाण ॥३१ [दादू] तुम जीवों के जोगुण तजे, सु कारण कौण अगाघ । मेरी जरणा देखि करे, मति के सीखे साथ ॥ ३२ ॥ पथषला पानी सब पिया, धरती अरू आफंास। चंद सुर पावक मिले, पंचों एक गरास ॥ ३३ ॥ चोदह तोन्यूँ लेक सब, टुँगे' साँसे साँस । दादू साध्ठ सच जरैे, सतगुर के बेखास* ॥ ३४0
विनिमिि -इति जरणा कौ अंग समात॥ ५॥____
१६४ से, निगले । २ विश्वास ।
हेशन को अंग पे
६-हैरान को अंग [दादू] नमे। नसे निरंजन, नमस्कार गुर देवतः बंदनं से साथवा, प्रजा॑ पारंगतः ॥ १५ रसन एक बहु पारिखू, सब मिललि कर बिचार । गंगे गहिले बांवरे, दाठहू वार नल पार ॥ २॥ केते पारिख जीहरी, पंडित ज्ञाता उयोन : जाण्या जाह न जाणिये, का कहि कथिये ज्ञान ॥ ३ ॥ केते पारिख पत्चि मुए, कोमतो कहो ने जाई । दादू सब हैरान हं, गेंगे का गुड़ खाइ १४ ॥ सब ही ज्ञानी पंडिला, सुर नर रहे उरभ्काह । : दादू गति गाबिंद की, क्यों ही लखी न जाइ ॥ ४॥ » जैसा है तैसा नाउें तुम्हारा, ज्यों है त्थो कहि साईं। ' लें शाप जाणे आप को, तहं मेरी गमि नाहीं ॥ ६४ केते पारिख अंत न पाव, अगम अशेाचर माहीं । दादू कीमति कह न जांणै, खोर नोर को नाई ॥ ७» 0 जीव ब्रह्म सेवा करे, ब्रह्म बराबरि होड़ । दादू जाणे ब्रह्म को, ब्रह्म सरोखा सेइ ॥ ८0 वार पार के ना लहे, कीमति लेखा नाहि । दादू एके नूरं है, तेज पुंज सब सारह ॥ < 0४ . हस्त पाँव नहिें सोस सुख, खबन नेत्र कहूँ केसा । दाहू सब देखे संणे, कहै गहे है ऐसा ॥ १० ॥ पाया पाया सब कहे, केतक देह दिखांइ । कोमति किनहूँ ना कहो, दादू रहु ल्यो लाइ ॥ ११ ॥
दे हैरान को अंग
अपना भंजन? भरि लिया, उहाँ उत्ता ही जाणि। अपणी अपणी सब कहे, दाद्ू बिड़द्* बखाणि-॥ १३ ॥ पार न देवे आपणा, गेप गुम सन माँहिं।
पु ३५ र्ि दादू काई ना लछहै, केते आब जाहिं ॥ १३॥ गूंगे का गुड़ का कहूँ, सन जांनत है खा । त्थों राम रसाइण पोव्ता, से। सुख कह्या न जाइ 0९४0 [दादू] एक जोभ केता कहूँ, पूरण ब्रह्म अगाघ। बेद कतेबा समिति नहीं, थक्तित भये सब्र साथ ॥ १४ ॥ दादू मेरा एक मुख, किरति अनंत अपार । गुण केते परिमिलसि* नहीं, रहे बिचारि बिचारि ॥ १६ ॥ सकल सिरेामणि नॉड है, तूँ है तैला नाहिं। दादू कोई ना लहै, केते आवब जाहि ॥ १० ॥ दादू केते कहि गये, अंत नआावे ओर । हम हूँ कहते जात हैं, केते कहसी होर+ ॥ १८ ॥ [दादू] मे का पान का कहू, उस बलिये? को बात । क्या जानू क्योहीं रहै, मे पे लख्या न जात ॥ १९ ॥ दाठू केते चलि गये, थाके बहुत सुजान । बातों नाँव न नोकले, दादू सब हैरान ॥ २०॥
हैरान को अंग 203
न तहाँ चुप नहिं बालणों, में ते नाहीं काइ ।
दादू आपा पर नहीं, न तहाँ एक न दाड् ॥ २३ ॥. एक कहूँ तो दाइ है, देह कहूँ दर हे एक । न. या दादू हैरान है, ज्यों है त्यों हीं देख ॥ २४ ॥. देखि दिवाने है गये, दादू खरे सयान । :
बार पार कोइ ना छहै, दादू है हैरान ॥ २४५॥ [दादू| करणहार जे कुछ किया, से हूँ करे जाशि । जे तूँ चतुर सयाना जानराइ' , तो याही परवाणि॥२६७ [दादू| जिन से!हन बाजी रची, से तुम पूछी जाइ। अनेक एक थे क्यों किये, साहिब कहि समभ्काह ॥२६॥ घट परिचे सब घट लखे, प्राण परोचे प्राण । - ब्रह्म परीच पाइये, दादू है हैराण ॥ २८ ॥ (8-१४६) चसे दृष्टि देखे बहुत, आातम दूष्टी एकि ।
ब्रह्म दृष्टि परिचे भया, दांदू बेठा देखि ॥४९॥ (9-१४७) येहई नेनाँ देह के, येई आंतम होड़ ।
येई नैनाँ ब्रह्म के, दादू पलदे देह ॥ ३० ॥ (9-१४८).
, ॥ इति हैरान का अंग समाप्त ॥ ५६॥
नन-न्न्-न्-%4कन-नगननननीनननिनननननननन-न-+ि न
१ जानकारों का राजा, भारी जनैया।.
जय को अंग
$-लय को अंग
[दादू] नम नमे! निरंजनं, नमस्कार गुर देवत:ः। बदन सर्व साथवा, प्रणाम पारंगतः ॥ १७ [दांदू] छय लागी तब जाणिये, जे कबहूँ छूटि न जाइ । जीवत यों लागी रहे, मूर्ताँ संभ्ति समाई ॥२॥ [दादू] जे नर प्राणी लब गता, साई गत हुँ जाइ । जे नर प्राणी लय रता, से। सहज रहे समाह ॥३ 0 सब तजि गुण आकार के, निहचल मन ल्लयो लाइ। आतम चेतन प्रेम रस, दादू रहे समाह ॥ 9 ७ तन्न मन पवना पंच गहि, निरंजन ल्यी लाह । जहूँ आतम तहूँ परञातमा, दादू सहजि समाह ॥ ४॥ अथे अनूपम आप है, और अनरथ भाई। दादू ऐसी जानि करि, ता सौँ ल्यो लाई ॥ ६॥ ज्ञान भगति मन मूल गहि, सहज प्रेम ल््यों लाइ । दादू सब ओरंभ तजि, जिनि कांहू सेंग जाह ॥ ०॥ पहिछी था से अब भया; अब से आगे हेो।इ । दादू तौनों ठौर को, बूक्के बिरला कोड ४५० जेशग समाधि सुख सुरति सेँ, सहज सहज आंव । मुक्ता द्वारा सहहल छा, छ््है सगति का भाव ॥ € ४ सहज सुन्ति सन राखिये, इन ढून्यूँ के माहि । ल्य समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नाहिं # १० ॥ पर जल का दा तन
9 है 'रखर उसमान ॥ ११ ॥
लय को अंग | ।
मन ताजी चेतन चढ़े, ल्थी की करे लगाम । [९-११६]
'सब्द गुरू का ताजणाँ, केइ पहुँचे साथ सुजान ॥९१२॥
प्रश्न-किहि मारग हैं आइया, किहि सारग हुं जाह। दादू कोई ना लहे, केते करे उपाह ॥ १३ ॥
उत्तर-सुल्हिं सारग आइहया, सुनल्नहि मारग जाह। चेतन पढ़ा सुरति का, दादू रहु ल्यो लाइ ॥९९॥
[दादू] पारत्रह्न पडो दिया, सहज सुरति ले सार ।
मन का मारग माहि घर, संगी सिरजनहार ॥ १५ 0
रास कहे जिस ज्ञान सो, अमृत रस पीजे ।
दादू दूजा छाड़ि सब, ले लागी जीबे ॥ १६ ॥
रास रसाइन पीवर्ता, जीव ब्रह्म है जाद ।
दाद आतम राम सो, सदा रहे ल्थी लाइट ॥ १७ ॥
_सुरति समाह सनमुख रहे, जुगि जुगि जन पूंरा ।
दादू प्यासां प्रेम का, रस पीजे सूरा ॥ ९८॥
[दादू] जहाँ जगत-गर' रहत है, तहें जे सुरति समाहु ।
लीं इन हीं नैनों उल॒दिं करि, कोतिग* देखे आई ॥१५९॥
अख्यें पसण खे पिरी, भीरे उलतठों मंक्त ।
जिते बेढे! माँ पिरो, नीहारी दौ हंभ्क ॥ २०२ ॥
दादू उलठ अजपठा जाप मे, अंत्तरि सेधि सजाण।
से ढिग तेरा घावरे, तजि बाहिर की बाणि ॥ २१ ॥
सुरति अपूठी* फेरि करि, आतम माह आाण।
लागि रहै गुरदेव सौं, दादू से।ई सयाण 0 २२ ॥
१ निरंजन | २ कोतुक । ९ आँखे को अंतर मे फेर कर प्रीतम को देज, जदों ( है उस को हंस ही लख सकते हैं । 3 पीछे | ५ छुमाव, आदूव । ! - १५
(यह लय को झंग
है, सकल रहा भग्प्र ।
[दाद] गाते सुशात सं, बाणी बाजे ताल।
यह मत्र नाचे प्रेल सो, आग दीनदयाल ॥ २५ ॥
[दादू] सब बातन को एक है, दुनिया थ दिल दूर
साह सेती संग करि, सहज सुरति ले पूरि ॥ २६ ४
दाह एक सरति सो सब रहे, पंचों उनमल लाख ।
यह अनमे उपदेख यह, यह परम जेाग बैराग 0 २७
[दादू] सहज सुशति समाह्ठ ले, पारब्रह्न के अंग ।
अरख परख सिलि एक है, सलमुख रहिबा संग ॥ रु:
सुरति सदा सनखसुख रहै, जहाँ तहाँ लैेलीन ।
सहज रूप सुमिरन करे, लिहकर्मी दाद दीन ॥ ए८ं ॥
सुरति लदा स्थाबति' रहे, तिन के सोटे भाग।
दांदू पीजे रास्न रस, रहै निरंजन लाग ॥ ३० ॥
दादू सेवा खुशति सौँ, प्रेम प्रोति से लांह ।
जहें अबिनासोी देव है, तहें सुरति बिना को जाई ॥ ३१॥
[दादू| ज्याँ वे धरत गगन थे टूटै, कहाँ घरनि कहें ठाम । शी सुरति अंग थ छूहै, से। कत* जोबे राम ॥ ३२ ॥
खंहज जेग सुख म रहे, दाद निर्गण जाणि।
अत+एात॑ईप्र+++जततचतत ततत++-+++-++क................
१ साबित -स्थिर। ९ कहाँ। ३ जल ।
ह्वयकोर्शंग . हा क्ः
भन हीं से सन सेविशे, ज्यों जल जलंहि समाय-। आतम चेतन प्रेम रख, दाद रह ल््थोी. लाह ॥ ३४ ॥ छाड़े सुरंति सरीर को, तेज पंज मे आइ । (४-१६२) दाद ऐस मिलि .रहै, ज्यों जल जलहि समाहु ॥ ३६ ॥ यो मन तजे सरोर को, ज्यों जागत सा जाहु ।. - दाद बिसरे देखता, सहज़ि सदा लथो छाइ ॥ ३७ 0 जिहि आसणि पहिली प्राण था, लेहि आखणि ढपो लाह.।. जे कुछ था साई भया, कछ न ब्यापे आह # इ८ हे... तन मन अपणा हाथ करि, ताहोी सेौँ ल्यो लाहु ॥ .. ; दादू नि्गुंण राम सौँ, ज्यों जल जलहि समाह ॥ एप... - एक मना लागा रहै, अंत मिलेगा सैाह!.... रा है दादू जाके मन बसे, ता के दरखन होडू ॥४० ॥ “ दादू निबहै त्येँ चले, घरि घीरज सन माहिं। . :._ परसेगा पिल एक दिन, दादू थाके लाहि॥ 9१ ॥ ४£.£
जज * ८ जात बह
।
ि] पक
जब मन मितंक है रहै, इंद्री बल भांगा ॥ . . ६ काया के सब गुण तजे, नीरंजन लागा ॥ ४७२४ . . /,४ उ्ादि अंत मधि एक रस, टूहे नहिं घागा। | /£._*४
| दादू एके राह गया, तब जाणी जागा ॥ 8३४ 8 / #_* । जब छगि सेवय तन चरे, तब लूणि दूशर आहि। 5. एकमेक हैं सिलि रहै, तो रस पीत्न थ जाहि ॥४४ ॥ दून्यूँ ऐसो कहें, कोजे कौण उपाह। 7
ना मे एक न दूसरा, दादू रहु ल्थोी लाइ ॥४४॥ _-. :* ८
॥ इति लय को अंग समाप्त॥ ७ ॥ पा कु . हे
रथ ता प् क्लब जाय, नींद में हे जाया १ सोय जाय, मी द् भे हो जाय।
दै२ निहकर्मी पतिप्रता को अंग
८- निहकर्मी पतिब्रता को अंग
[दादू] नमे। नमे!। निरंजन, नमरुक्ार गुर देवतः ।
बंदन सर्व साधवा, अणामं पारंगतः ॥ १॥
एक तुम्हारे आसिरे, दादू इहि बेसास*।
राम भरोसा तार है, नहिं करणी की आस ॥ २॥
रहणो राजस ऊपजे, करणी आपा हो ।
सब थ दादू निर्मला, सुमिरण लागा सेइ्ट ॥ ३ ॥
[दादू] मन अपणा डैलौन करि, करणी सब जंजाल ।
दादू सहज निमेला, आपा भेटि सेंमाल ॥ 9 ॥
[दादू| सिद्धि हमारे साइयो, करामात करतार ।
रिट्ठि हमारे राम हैं, आगम अजलख अपार ॥४॥
गाब्यंद गे।साई तुम्हे अम्ह चा' गुरू, तुम्हें अम्हंधा ज्ञान।
तुम्ह अम्हंचा देव, तुम्हं अम्हंचा ध्यान 0६॥
तम्हें अम्हंची पुजा, तुम्हे अम्हंची पाती ।
तम्हें अम्हंचा तोरथ, तुम्हे अम्हंचा जाती ॥ ७ ॥
तम्ह अम्हंचा नादू, तुम्हे अम्हंचा भेद् ।
तुम्हें अम्हचा पुराण, तुम्हं अम्हंचा बेद् ॥ ८४७
तुम्हे अम्हंची जुगत, तुम्हें अम्हंचा जाग। अम्हंचा बेराग, तुम्हें अम्हंचा भोग ॥ <॥
तुम्हे अम्हंचो जीवनि, तुम्हे जम्हंचा जप।
तुम्हें लम्हंचा साधन, तुम्हें अम्हंचा तप ॥ ९७ ॥
तुम्हे अम्हंचा सील, तुम्हेँ अम्हंचा संतोष ।
तुर्ह अम्हंचो मुकति, तुम्हें अम्हंचा मेष ॥ ११७
१ मिशम्वास । ९ अमचा > दमाय।
निहकर्मी पतिब्रता फो अंग हे
तम्हे अम्हंचा सित्र, तम्हें अम्हंचो साक्ति।
तम्हें अम्हंचा आगम, तुम्हें अम्हंचो उक्ति ॥ १२॥ तेंसलि ते अवगति ते अपरंपार, ते निराकार तम्हंचा नाम दादू चा* बिस्ताम, देहु देहु अवलंबन रास ॥ १३ ॥। [दादू |] राम कहूँ ते जीड़िया, रास कहूँ ते साखि । राम कहूँ ते गाइबा, रास कहूं ते राख ॥ १४१ ॥ [दादू| कुल हमारे केसवा, सगा त सरजनहार । जाते हमारी जगस-गुर, परमेसुर परिवार ॥ १५ ॥ [दादू] एक सगा संसार में, जिन हम सिरजे सोह । मनसा बाचा कसेना, ओर न दूजा कोह ४ ९६ ॥ साई सन्मुख जोवताँ, मरतां सन्मख होह ।
दादू जीवण मरण का; सोच करे जिनि कोड ॥ १७ ॥ साहिब मिलल््या त सब मिले, भदे भदा हाहू । साहिब रह्य/ त सब रहे, नहीं त नाहों केाह ॥ १८ ॥ साहिब रहता सभ रहा, साहब जातों जादू ।
दादू साहिब राखिये, दूजा सहज [सुभाई ॥ १६ ॥
स्व सुख मेरे साइयाँ, मंगल आंत आनंद ।
दादू सज्जन सब मसले, जब भंदे परसानंद् ॥ २० ॥ दादू रोके राम पर, जअनत न रीमे सन ।
मोठा भावे एक रस, दादू साई जन ॥ ९९१ ७, . (दृदू] मेरे (हिरदे हरि बसे, दूजा नाहों औौर। ४... कहे कहाँ थो राखिये, नहों आन को ठौर ॥ २२ 0
१ तुमचा तुस्दाय। २का। रेनास का खुमिरन हो सेस पद् जोड़ना है, वही ) मेरी साखी, वही मेरा भाना, वही मेरो घारना है-*प० चं० प्रै० |. -
छः निईफर्मी पतित्रता फो अंग
[दाद] नारायण नेता बसे, मन हीं मेहनराइ।
हिरदा माह हरि बसे, आतम एक समाहु ॥ २३॥ परम क्था उस एक को, दूजा नाहों आन ।
दांदू तल मन लाइ करि, सदा सुरति रस पास ॥ २४९ । [वादू] तन सन्न सेरा पीव सो, एक सेज सुख सेह । गहिला लेग न जाणहो, पच्ि पच्ि आपा खेद ॥ २४ । [दादू] एक हमारे उरि घसे, दूजा मेल्या* दूरि ।
ठूजा देखलत जाइगा, एक रहा। भरपूर ॥ २६ ॥। निहचल का निहचल रहे, चंचल का चलि जाइ ।
दादू चंचल छाडि सब, निहचल सो ल्यो लाइ ॥ २० ॥ साहिब रहताँ सब रहा, साहिब जाता जाह ।
दादू साहिब राखिये, ठूजा सहज सुभाह ॥ २८॥
सन चित मनसा पलक में, साईं दूरि न हाह निहकामी निरखे सदा, दादू जीवनि से।ह ॥ २९ ॥। जहाँ नॉव तहूँ नीति चाहिये, सदा रास का राज । . निर्बविकार सन सन भया, दादतू सीकर काज ॥ ३० ॥ जिसकी खूबी खूब, सल ॒ सेडे खूब सें भारि । ु दादू सुंदुरि खूब सो, नख खिख साज सेवारि ॥ ३९४ [दादू | पंच अभूषन पोत़ करि, सेलह सब ही ठाँव । . सुंदांर यहु सिंगार करि, ले ले पिवर का नाँव ॥ ३२७ यह ब्रत सुंदरि ले रहै, तो सदा सुहागनि होड़ ।
दादू भाव पीव को, ता सम और ल कोड ॥ श्श्क
१ यद साखो फेवल साधू दयाललरन जी की लिपि २» डाला। ३ खरे, बने ३ . ने दो डे दे
निहकर्मी पतिश्रता को अंग ड्ष्प्
साहिब जी का शावताँ, काहइ करे कलि माहि । मनसा बाचा कमना, दाद चठ घट नाहि 0 ३४ ॥ अज्ञा माह बेसे ऊबे' , अज्ञा आबे जाद
अज्ञा माहि लेबे देवे, अज्ञा पहिरे खाद ॥ ३४ ॥
अज्ञा माह बाहरि भीतरि, ऊअज्ञा रहे समाहु। ह अज्ञा माह तन मन राखे, दादू रहि ल्यो लाइ ॥ ३६ ॥ पतिब्रता महू आपणे, करे खसम को सेव ।
ज्यों राखे त्यों हीं रहे, अज्ञाकारी देव ॥ ३७ ॥
[दाद] नीच ऊँच कुल सदरी, सेवा सारो होइ ।
सेाह स॒हागनि कीजिये, रूए न पीजे था ॥ ३८ ॥ [दाद] जब तन सन सै प्या राम की, सा सनि का विभिचार। सहज सील संतेाष सत, प्रेम भगति ले सार ह ३९ ॥ पर परिषारे सल परिहरे, संदरि देखे जागि
अपणा पीब पिछाणि करि, दादू रहिये लागि ॥ ४० ॥ आन पुरिष हूं बहलड़ी, परम पुरिष सरतार ।
है अबला समझी नहों, त॑ जाणे करतार ॥ 9१ ॥
जिस का तिस कोँ दीजिये, साई सनन््मुख आइ ।
दादू नख सिख सॉथि सब, जिनि यह बंस्या जाई ॥४२। सारा दिल साई रू राख, दाद सेई सयान ।
जे दिल बंहे जआपणा, से। सब सूढ़ अथान ॥ ४३ ॥ [दादू] सारों से दिल तेरि करि, साईं सौ जेररे ।
साह सेती जारि करि, काहे का ले।रे ॥ ४० ॥
साहिब देवे राखणप* , सेवग दिल चोरे।
दादू सब घन साह का, सूला सन थोारे5 ॥ ४४ 0
ि किन + अवऑअयओ>-ओि-++-3+न न जन अल ज++_॥
बैठे उठे । २ आदत, खुभाव+4 | पुरुष | यॉँठा। ५ अमानत | ६ तुच्छ बुद्धि ।
दे निहकर्मी पतित्रता को अंग
[दाद] मनसा बांचा कर्मना, अंतरि आवबे एक ।
ता की परतषि' रामजी, बाते और अनेक ॥ ४६ ॥ [दादू] मनसा बाचा कर्मना, हिरदे हरि का भाव। अलख परिष आगे खड़ा, ता के आत्वरिभ्ुवन राव ॥ ४५ ॥ [दाद] मनसा घाचा क्रमना, हरिज्ञी सेँ हित हाइ। साहिब सन््मुख संणि है, आदि निरंजन सेट ॥ ४५॥ [दादू] मनसख बाचा कमना, आतुर कारणि राम । समरथ साईं सब करे, परगट पूरे काम ॥ ४८ ॥ नारी परिषा देखि करि, परिषा नारी होह।
दाह सेवग राम का, सोलवंत है सेइ ॥ ४० ७
पर परिषा रत बॉमणी,' जाणे जे फल होड़ । जनम बिगेजे आपणा, दाद निर्फेल सेह ॥ ४१॥ दाद तजि भरतोर का, पर पुरिषा रत होड़ ।
ऐसी सेवा सब करे, राम न जाणे सेाह ॥ ४२ ॥ नारी सेवग तब लग,जब लग साहू पास ।
दाढू परसे आन को, ता की कैसी आस ॥ ४३ ॥ दाह नारी परिष को, जाणे जे बसि हाइ।
पिव की सेवा ना करे, कामणिगारोर सेह ॥ ४४ ७ कीया मन का भावतलों, भमेटी आज्ञाकार ।
क्या ले मुख दिखलाइये, दांदू उस भरतार ॥ ४४ ॥ करामाति* कलंक है, जा के हिरदे एक ।
अति आनंद बिभिचारणो, जां के खसम अनेक ॥ ४६ | दोदू ] पतिन्रता के एक है, बिभिचारणि के देह । पतिब्लता बिभिचारणी, मेला क्योँकरि हाह ॥ ४७ ॥
------__ .____ रे _ अत्यक्ष ) २ चॉकत ३) दोनदिन, डाइन | ४ चमत्कार, सिद्धि शक्ति!
निहकर्मी पतित्रतों की अंग...“ . ७ पतित्रता के एक है, दूजा नाहीं आन । ५... « बिमिचारणि के देह है, पर घर एक समान ॥ धृद ॥ [दाद] परिष हमारा एक है, हम नारी बहु अंग । . जे जे जेसी ताहि सो, खेडे तिसही रंग ॥ घ८ ॥ . दांद रहता राखिये, बहता देहु जहाइ। बहते संग न जाइये, रहते सौ ल्यों लाइ ॥ ६० ॥ जिनि बाफे काहू कर्म सो, दूजे आरंम' जाइ । दादू एके मूल गहि, दूजा देह बहाह ४ ६९ ॥ पु दबाव देखि न दाहिणे, वन मंन सन्पृख राखि। - दादू निर्मेल सत्त गहि, सत्य सबद यहु साखि ॥ ६२८ ॥ [दाहू] दूजा नेन न देखिये, खबणहूँ सुने न जाइ । , जिश्या, आन न बालिये, अंग न ओर सुहाइ ॥ द१॥ -: ' चरणहुं अनत न जाइये, सब उलटा माहि समाह | उलहि अपूठा आप में, दांदू रह ल्थी ला ॥ ६9 ॥ दादू] दूजे खंतर हाल है, जिनि आणै मन माहि। . तह ले मन का. राखिये, जहें कुछ दूजा नाहि 0 ६४ ॥ भरम .तिमर भाजे नहीं, रे जिय आत्त उपाह। दांदू दीपक साजि ले, सहज हो मिदि जाई ॥ ६६ 0 [दादू| से बेदन' नहिं बावरे, आन किये जे जाह ।. . सब दुख-भंजन'* साइयाँ, ताही से ल्थी लाइ ॥-६० ॥ दादू] ओषदि मूली कुछ नहाँ, थ्रे सब कूठो बात । . जे ओषदि ही जीविये, तो फाहे के मरि जात ॥ ६८॥ हे ... ३ या क्ण, उककेंड ३ कोड़ा। ३ हूहरे के। ४ हु लिवारता
॥॒ रद '
रद निहकर्मी पतित्रता को श्रंग
मूल गहे से। निहचल बैठा, सुख में रहे समांह ।
डाल पात भरखत फिरे, बेदाँ' दिया बहाड ॥ ६६
सो थक्का सुनहाँ: का देवे, घर बाहरि काढे।
दादू सेवग रास का, द्र्बार न छाड़े ॥ ७० ॥
साहिब का दुर छाडि करि, सेबग कहीं न जांइ ।
दादू बैठा मूल गह्ठि, डालाँ फिरे बलाहू ॥ ७१ ४
[दादू | जब लग छूल न सों चिये, तब लग हरथा न है।इ ।
सेवा निरफल सब गह, फिरि पछिताना सेह ॥ ७२ ॥-
दादू सींचे मुल के, सज सींच्या बिस्तार ।
दादू सींचे मूल बिन, बादि गड्ढे बेगार ॥ ७३ ॥
सब आया उस एक में, डाल पान फल फूल ।
दादू पीछे क्या रहा, जब निज पकड़चा मूल ॥ ७०४ ॥
खेत न निपजे बाज बिन, जल सोंचे क्या हाई ।
सब निरफल दादू राम बिन, जाणत है सब केाह ॥ ०५
[दादू] जब मुख माह भेलिये, तब सबहो ढप्ता हाई ।
मुख बिन मेले जान दिस, र॒प्ति न माने के ॥ ७६ ॥
जब देव निरंजन पूजिये, ततब्र सब आया उस भांहि ॥
हाल पान फल फूल सब, दादू न्यारे नाहिं ॥ ७७ ७
दाू ठोका राम काँ, दूसर दांजे नाहिं। ह
ज्ञान ध्यान तप भेष पण,रे सब आये उस भाहिं ॥ ७5
साध्् राखे रास के, संखारो माया । डर
संसारी पांठव* गहे, मुल खाप्ु पाया ॥ ७६ ॥
दादू जे कुछ कोजिये, अविगत बिन आराघष ।
कांहेबा सुणिबा देखिबा, करिबा सब अपराध ॥ ८० ॥ ... (्चेद् कतेव | २ कुत्ता । ३ पक्ष या टेक | ७ पत्ता,
निहकर्मी पतिन्नता को हींग... ८ कै
सब चतुराह देखिये, जे कुछ कीजे आन । इादू जापा साँषि सब, पिव के लेहु पिछान ॥ 5१0७ दादू दूजा: कुछ नहीं, एक सत्त कारि जाणि । दादू दूजा क्या करे, जिन एक लिया पहिचांणि ॥ ८२ 0 [दादू) कोई बाद मुकति फल, फ३े अमरापुरि बास ।. कई बांछे परम गति, दादढू एप मिलन की प्यास ॥ एहे ॥ तुम हरि हिरदे हेस सै*, प्रगटहु परसानंद । | दादू देखे नेन भरि, वब कैता होड़ अलंद 0७ ५४ 0 :. प्रेत पियाला राम रस, हम के मात्र येहि।... रिचि सिदि माँग सुकति फल, चाहेँ लिल का देहि ५:४७ फहाटि बरस क्या जीवणा, अन्नर सये क्या हाह |. प्रेपे भगति रस राम खिन, का दाटू जीवनि सेद् ॥ ८६ 0४ कव्छू न कीजे कामना, सग्गण नि्गुण हाह । .. पलटि जीवतें ब्रह्म गति, सब समिलि माने मेर्हि ॥5१ ५ चट अजरावर * है रहे, बंधन नाहीं काद * मुकता चौरासी मिट्टे, दादू संसे सेह 0 +5॥ निकट निरंजन लागि रहु, जब लंगि अलख अभेव | (४-३१९०) दादू पीवे राम रख, निहकामी निज खेव ॥ 5६ 0
; सालाक संगति रहै, सामीप सन्मुख से।इ ।
| सारूप सारोखा भया, साजुज एके हे।हू 0९० 0
शाम रसिक बांछै नहीं, परम पदारथ वे: । अठ सिधि नो निधि का करे, राता सिरम तार करे, राता सिश्जनहार १ €्९् 0
_ “३ | ज-८
0 | श्यमर | रे इस मे चारो प्रकार की सुक्ति का वर्जन है- (१) सालोक अर्थात
५ शद के लोक में बासा मिलना, (२) सामीप+ई४ के निकट रहना, (ऐ) सारूप+ इप्ट का रूप धारण करना, (ड) सायुज्य #इूट में लय दो जाना ।
बल
।
१०७ निहकर्मो पतिप्रता फो अंग
स्वास्थ सेवा कीजिये, ता में मला न हेाइ। दादू ऊसर बाहि' करि, केाठा भरे न काइ ॥ ९२ ॥ सुत बित माँगे बावरे, साहिब सो निधि मेलि*। दादू वे निर्फल गये, जेसें नागर बेलि ॥ ९३ 0 फल कारण सेवा करे, जाचे त्रिभुवन-राव । दादू से। सेवग नहीं, खेले अपणा डाव३ ॥ <8 ॥ सहकामी सेवा करे, माँगे मुगध४ गँवार। दादू ऐसे बहुत है, फल के भूँचणहार*॥ ९४ ॥ तन मन ले लागा रहे, रासा सिरजनहार । दादू कुछ माँगे, नहीं, ते बिरला संसार ॥ €६ ॥ [दादू कहै] साई के संमालताँ, केटि बिचन टलि जाहिं | राई मान बसंदरा, केते काठ जलाहि*॥ €० 0 रास नाम गुर सबद सं, रे सन पेलि भरम । निहकरमो से मन मिल्या, दादू काटि करम ॥ र€८ ॥ सहजे हीं सब हेाइगा, गुण इंद्री का नास। - दादू रास सेंमालताँ, कहे करम के पास» ॥ रू 0 एक महूरत मथ रहे, लाँज निरंजन पास । दादू तब ही देखताँ, सकल करम का नास॥ १००७ एक रास के नास बिन, जिव की जलण न जाइ। दादू केते पति मुए, करि करि बहुत उपाह ॥ ९०१ ॥ करमे करण काठे नहीं, करमे करसल न जाइ। करमे करम छुटे नहीं, करमे करम जचाहु८ ॥ ९०२ ॥।
॥ इति निहकरमो पतिन्नता को झंग समाप्त ॥ ८ ॥
. > ज्ञोत वो कर। २ छोड कर | ३ दोव। ७ आर । प॒ ऊपपपप7घपपपप-+म+म+म+्++5 “१ जोत वो कर। २ छोड़ कर।३ दाँव। ४ सूख । ५ चाहने घाले। द राई _.. भराषर झाग से काठ फे ढेर जल जाते हैं। ७ फॉँसे | ८ बढ़ाता है।
सितावणी को अंग ु १०६ ए-चितावणी को अंग
[दादू] नभे। नसे। निरंजन, नमसरुकार गुर देवत:
बंदन सर्वे साथवा, प्रणाम प(रगतः 0१७
[दाद] जे साहिब को मात्र नहीं, से। हम थ जिनि होइ। सतगर लाजे आपणा, सांच न माने कोड ॥२॥ । [दादू] जे साहिब को भाव नहीं, सो सब परिहरि प्राण। - भनसा बाचा कम्तेना, जे ते, चत्र सुजाण ॥३॥ [दादू) जे साहिब को भात्रे नहीं, जोव न कीजे रे। परिहरि बिबे बिकार सब, अमृत रस पोजे रे ॥ 9 दादू जे साहिब को भाजे नहीं, से! बाट न बूक्तो रे साई सो सन््मुख रही, इस सन सो जको रे ॥ ४। राम कहे सब रहत है, नख सिख सकल सरोर । राम कहे बिन जात है, समझे सनवाँ बोर ॥६॥ राम कहे सब रहत है, लाहा मूल सहेत ।
राम कहे थिन जात है, म्रख सनवा चेत ॥ ७ 0 राम कहे सब रहत है, जादि अंत ल्यी लाह। रास कहे बिन जात है, यह मल बहरि न आह ॥ राम कहे सब रहत है, जोब ब्रह्म को लार ।
राम कहे बिन जांतं है, रे मन हेड हंसियार ॥ < दादू अचेत न हाइये, चेतन सो चित लाह । मनंवाँ सेत्ता नींद भरि, साई संग जगाह 0 ९०॥ दाहू अचेत न - हाइथे, चेतन सो कंरि चिस |
ये अनहद जहूँ थे उपजे, खेाजेा तहूँ हो नित्त ॥ १
रै०्ब- .-. चितावणी को अंग
दादू जन कुछ चेत करि, सोदा लीजे सार ६
निखर' कमाई न छूटणा, अपणे जीव बिचार ॥ १२॥ [दादू] कर साईं की चाकरी, ये हरि नाँव न छोड़ि । . जाणा है उस देस को, प्रीति पिया सो जाड़ि ॥ १३/ आप! पर सब दूरि करि, राम नाम रस लागि। दादू औसर जात है, जागि सके तो जागि ॥ १४ 0 बार यार यहु तन नहीं, लर नारायण देह । ह दादू बहुरि न पाइये, जनम अमेलिक येह 0 १३ ॥
दुख द्रिया संसार है, सुख का सागर राम
सुख सागर चलि जाइये, दादू तजि बेक्राम ॥ १६ 0 एका एकी राम सौं, के साध्लू का संग । . दादू अनत न जाइये, और काल का अंग ॥ १७ ॥ [दादू] तन मन के गुण छाडि सब, जब हाइ नियारा। सब अपने नेनहुँ देखिये, परघ् पिवर प्यारा ॥ १८ ॥/ [दादू] भ्हाँती पाये पसु पिरी, अंदरि से आहे। हाँणी पाणे बिच्चु सम, मिहर न लाहे ॥ १६१ ॥
दादू भकाँसो पाये पसु पिरी, हाँणे लाह म बेर ।
साथ सभेई हलयी, पाह पसंदे केर ॥ २०१॥
॥ इति चितावनी को अंग खमाप ॥ & ॥
.._ १ असल, निज । २ भाँकी (माँती) पाकर या खिड़की में मुँह डाल कर प्रीतम (परी) का दर्शन कर (पख) वह अंदर है- अब (दाँगी) चह आप (पाणे) तेरे घट हा का पी आर न छोड़ेगा (लाहे)। ३ भाँकी पाकर प्रीतम का दर्शन कर, अब हाँणे) देर (बेर) मत (म) लगा (लाइ)-साथी सभी (सके दे
(दृल्यो) पीछे (पोइ) कौन (केर) देखेगा [पसंदो] (लमाई) चल दिये
भन को अंग प १५-सन को अंग |
दादू नमे। नमे। निरंजनं, नमस्कार गुर देववः । बंदनं सबे साधवा, प्रणाम पारंगतः ॥ १४७
दादू यहु मन बरजी .बावरे, घट में राखो चेरि | मन हसुतों माता बहै, अंकस दे दे फेरि ॥ २ ॥
हस्तो छूटा मन फिरे, क्यों ही बध्या न जाह । बहुत महावत पचि गये, दाठदू कुछ न बसाह ॥ ३४ जाहाँ थे मन उठि चले, फेरि तहाँ ही राखि | तहँ दादू लयलीन करि, साथ कहें गुर सांखि ॥ ४ ॥
थारे थार हटकिये' , रहेगा ल्थी लाह। जब लागा उनमनो से, तब सन कहीं न जाह ॥ ४ !
आड़ा दे -दे' राम का, दादू राखे मन ।
साखो दे इस्थिर करे, से साधु जन ॥ ६ ॥
सेहे सुर जे सन गहे, निसमखि न चलने देह ।
जब हीं दादू पग भरे, तब हो पाकड़ि लेहू 0 ०॥ जेती लहरि समंद को, तेते मनहिं मनेःरथ सारि। बेसे सब संतेष करि, गहि आतप्त एक जिचारि ॥८ [दादू] जे मुख माह बे!लता, खबणहुँ सुगता आइ। नेनह माह देखता, से झंतरि उरभ्काइ ॥ ९ ॥
दावू चम्बक देखि करि, लेाहा लागे आइ। ये मन गण इंद्ी एक से, दादू लीजे छाहई ॥ १० ॥
१ बरज्ञना, रोकना | २ सस्मुज्ञ करके |
मन का आसण जे जिव जाणे, तो ठौर दौर सब सूफे। पंचों आणिएक घरिराखे, तब अगम निगम सब बूके ॥१९॥ बैठे सदा एक रस पोवे, निरबेरी कत जूमे ।
आतभ्त राम मिले जब दाद, तब अंगि न लागे दूजे ॥ १२॥ जब लगि यह मन घथिर नहीं, तब लगि परस न होह । दाद मनवाँ थिर भया, सहजि मिलेगा सेइ ॥ १३ ॥
[दादू | बिन धरवलंबन क्यूँ रहे, सन चंचलि चलि जाइ। इस्थिर मनवाँ तो रहे, समरण सेता हाइ ॥ १४ ॥ मन इस्थिर कर लोजे नाम ।
दाद कहे तहाँ हीं राम ॥ १५॥ ह हरि समिरण सो हेल करे, तब मन निहंचल हाद। . दादू बेघ्या प्रेम रस, बीष! न चाले सेइ ॥ १६ 0
जब घझंतरे उफ्था एक से, तब यथाके सकल उपाय । दादू निहचल थिर सझ्या, तब यलि कहां न जादू ॥ १७॥ [दादू] कडबे। बोहिथ* बेसि करि, संश्छि समंदाँरे जाह । उड़ि उड़ि थाक्रा देखि तथ, निहचल बैठा आइह्ृ॥ १८ ॥ यह मन कागद को गडी,१ उडि चढ़ी क्ाकास ।
दादू भोगै प्रेम जल, तब आइ रहै हम पास ॥ १९ ॥ दादू खोला गारिं" का, निहचल थिर न रहाइ।
दादू पग नहिं साच के, भरसे दृह दिसि जाइ ॥ २० ॥ तब सुख आनंद आतमा, जे मन थिर मेरा हाह । दादू निहचल राम सो, जे करि जाणै कोइ ॥ २१ ॥
१ बिष, ज़हर। २नाव, किश्ती। हे समुद्र ।४ गुड़ी, पतंग। ५ गाड़ो को
फील जो पद्दिये के साथ घूमती रद्दती है। [पंडित च॑ को अर्थ “मिट्टी का” लिखा हे ].:. द्विका प्रसाद ने गारिका
भन को अंग श्ण्पू
मन निर्मल थिर हाोत है, रास नाम आनंद ।
' दादू द्रसन पाइये, पूरण परमानंद ॥ २२४ ८ [दादू] या फूटे थे सारा भया, संघे संघि मिलाह । बाहुड़ि बिषे न भूंचिये,' तो कबहूँ फूटि न जाइ ॥२३॥ [दादू) यहु मन भूला से गछो, नरक जाण के घाट । अब मन अविगत नाथ सो, गुरू दिखाई बाठ ॥ २७ ॥ [दादू] मन सुध स्थाबतर आपणा, निहचल होबे हाथ तो हुहे ही आनंद है, सदा निरंजन साथ ॥ २४७ ॥ जब मन लागे राम सो, ,,तब अनत काहे के जाइ । दादू पाणी लँण ज्य, ऐस रहे समाह ॥ २६ ॥
- जय -जल पैसे दूध में, ज्यें पाणी में लूँण। ऐस आतम राम सो, सन हठ साथे फूण ॥ २७ ॥ (२-०६)
” सन का मस्तक मेडिये, काम क्रोध के केस* । दादू बिषे बिकार सब, सतगुरु के उपदेस ॥ २८ ॥ (१-७०) से। कुछ हम थ ना भया, जा पर रीक्ै रास । दादू इस संसार से, हम आये बेकास ॥ २९ ॥ क्या मुंह ले हेंसि बे।लिये, दादू दीजे राह । जनम जमेलक जापणा, चले अकारथ खेाहइ ॥ ३० ॥ जा कारण जग जीजिबे* , से| पद हिरदे नाहिं।
. दादू हरि को भगति बिन, धुग जीवण कलि माहि ॥३१ ॥ कोया मन का भावसाँ, मेटी अज्ञाकार । | क्या ले मुख दिखलाइये, दादू उस भरतारर्॥ इ२ | ..:
९ ओड़ से जोड़ मिला कर | २ चाहिये। ३ साबित, स्थिर । ४ बाल ' ५ जीने पोग्य | दे पति, पुरुष । - । १७
६4 मैन को अंग.
द्रो स्वार्थ सब किया, मन माँगे से दीनह । ु जा कारण जग सिरजिया, से दाद कब्छ न॑ कीनह ॥ ३३ ॥ कीयां था इस काम को, सेजा कारण साज ॥ दाद शुला बंदगो, संखा ल एको काज ॥ ६४ ॥ दाद- बिणे विकार सो, जज लगि सन राता। तब लगि चित्त न आवबहे, तजिसवल-पति दाता ॥ ३४॥ (२-६६, दाद] का जाणों कल हाइगा, हरि सुसिरन इकतार । का जाणो कब छाड़ि है, यहु लल बिणे बिकार ॥३६ ॥ (२-६०) बादिहि जनम गवाहइया, छीया बहुत बिकार । थह मन हारु्थर दा न्या, जह दाद नज सार ॥ ३० । दादू] जिलि बिच पीबे जावरे, दिल दिन बाढ़े रोग । देखत हीं मारे जाहइगा, ताज क्िजषया रस भे।ग ॥ ३८ । जापा पर सब दरि करि, राप्त नाम रस लागि। (९-१०) दाद ओऔशसर जात है, जाणि झके तो जागि ॥ ३९ ॥ दाठदू सब कुछ बिलखतईं, खाता पीर्ता हेाह । दादू मल का लावता, कहि लसफ््नावे काहु ॥ ४० ॥ दादू मन का मावता, मेरी कहे बलाह । साच राम का जानता, दाह कह सुणि आह ॥ 8१ ॥ थे सेब सल का सावला, जे कुछ कोजे आंन । मन गहि राखे एक सौ, दांदू लाच सुजान ॥ ४२ ॥ जे कुछ भावे रास को, से! तल कहि समक्काइ । दादू समन का भावता, खब की कहे बलाहु ॥ 9३ 0 पड़े पण चाले नहीं, हाह रह्या शलियांर* । रास रतिय लिबहे नहों, खेले फो हुसियार ॥ ४४ ॥ ................. (शल्य हम हु
धन को, अंग १०७
[दाद] का परमेाये आन को, आपण बहियां! जात. ।;.
औरों को अमुत कहे, आएण हीं बिण खात ॥ ४४ ॥ [दाह] पंचों थे परसेणि ले, इन हीं के उपदेख ।
“ यह मन अपणा हाथ करि, लो चेला घब देख ॥9६॥ ( १-९४९) [दाद] पंचों का सुख घूल है, सुख का मनवाँ हाई । यह मर्न राखे जतल कारें, खाथ कहाने साहु ॥ ४७ ॥ [दाद |जब रूगि मन के देह जुण, तल रण नविपषणा" नाहि । हैँ गण मन के भिदि गये, तलब निपण। मिकि माहि।॥ ४८ ॥। काचा पाक्रा जब लगे, तब छागि अंबर होह । काचा पाका दूरि करि, दादू एके सह ॥ ४९॥ सहज रूप मन का भया, तब है है सिटी तरंग ।
ताता सोला खम भया, तब छाठ एके झंग ॥ ४० ॥
[दादू] बहु-रूपी मल तब लग, जब लशि मायां रंग ।
जब मन' लागा रास सो, तब दाद एके अंग ॥ ४९ ॥
हीरारे सन पर राखिये, दब ठजा चढ़े ले रंग ।
दादू यों मन थिर मया, अविनाशी के संग ॥ ४२ ७
सुख दुख सब भाँइ पड़े, तब रूमि काया सन ।
दादू कुछ ब्यापे नहीं, तलब सन भया श्तन ॥ ४३ ॥
पाका मन डेले नहीं, मिहचल रहे समाह ।
काचा मन दह दिसि फिरै, चंचल चहुँ दिसि जादू ॥ ४९ ॥
सीप स॒था रस ले रहे, पिले न खारा नीर ।
माह भेती नीपजे, दाद बंद खरीर ॥ ४४ ॥
१ वहा । २ निपणा यानी जिस में पानी का मेल न हो (जैसा कि खुच्चे दूध के लिये बोला जाता है ), बिता मेल के, शुद्ध । ३ हीरा का ताप्तय राम नाम से है। ४ छोया, असर |
2
श्ण्छट मन को झ्ंग
दादू मन पंगुल भया, सब गुण गये बिलाइ ।
है काया नव-जेबनी' ,सत बूढ़ा है जाइ ॥ ४६ ७ [दादू] कच्छिब अपने करि लिये, मन हे द्री निज ठी र। (१-८८) नाँइ निरंजन लागि रहु, प्राणी परिहरि और ॥ ४१॥ सन् इंद्री आँचा किया, घट में लहरिं उठाइ।
साहू सतगुर छांड़ि करि, देखि दिवाना जाइ॥ ४८। [दादू कहें] राम बिना सन रंक है, जाचे तीन््यूँ लेक । जब मन लागा राम सौ, तब क्षागे दुलिदर देष ॥ ४८ | इंदी को आाधथीन मन, जीव जंत सब जाचे ।
तिणें लिणेरे के आगे दांदू, तिह ले।क फिरि नाचे ॥ ६० इंद्री अपणे बसि करे, से काहे जाचण जाइ । द्वादू् हस्थिर आतमा, आसण बेसे आह 0 ६१ ॥ मन मनसा दून््यें मिले, तब जिब कीया भाँड*। पंचौं का फरेखा फिरे, साया नचावै राँढ ॥ ६२ ॥. नकटी* जागें नकटा ५ नाचे, नकटी ताल बजावे। नकटी आगे नकठा गाबे, नकटो नक्कटा भातरे ॥ ६३ । पाँचों इंद्री भूत है, मना खेतरपाल*।
मनसा देवी ५ पूजिये, दादू तीन्यूँ काल ॥ ६४ ७ जीवत लूहे जगत सब, मितंक लूहें देव ।
दादू कहाँ पुकारिये, करि करि सूृए सेव ॥ ६४ ॥ अगनि थेम" ज्यों नोकले, देखत सबै बिलाहं।
त्यों मन बिछुठया राम सौं, दृह दिसि बीखरि जाई ॥ ६६
. ९ तरुण । २ सिखमगा ३ तुच्छोँ यो नीचे। ४ मसख़रा, बेहदा | ५ सनसा 5 सन | ७ राजा । मे घुआँ ह का
सने को झंग *. १७८;
घर छाडे जब का गया, मन बहरि न आया ।
दादू अगनि के घेम ज्यों, खुर खेशज न पाया ॥ ६७० ॥ सब कांहू के होत है, तन सन पसरे जाह ।
ऐसा फाहे एक है, उलंठा माहि समाहु ॥ €्८ ॥
क्यों करि उलटा आपिये, पसरि गया मन फेरि। दादू डोरी सहज की, यो आणे घरि घेरि ॥ ६ ॥ [दाहू] साथ सबद रो मिलि रहे, मन राखे बिलमाइ । साध सबद बिन क्यों रहे, तब हीं बीखरि जाहू ॥ ७० ॥॥ चंचल चहुँ दिसि जात है, गर बायक सें बंधि।
दाद संगति साथ की, पारत्रह्न से संधि ॥ ७१॥ (१-८४) एक निरंजन नाँव सो, साथ संगति माहि ।
दादू मन बिलमाइये, दूजा काहे नाहि ॥ ०२७ तन में मन आवबे नहीँ, निस दिन बाहरि जादू ।
दादू मेरा जिव दुखो, रहे नहीं ल्थी लाइ ॥ ७३ ॥ तन मे मन आवबे नहीं, चंचल चहूँ दिसि जाइ।
दादू मेरा ज़िव दुखी, रहे न राम ससाह ॥ ७४ 0 केटि जलन करि करि मए, यह मन दृह दिसि जाइ । राम नाम रोक्या रहे, नाहीं आन उपाह ॥ »9 ॥
यहु मन बहु अकवाद सो, बाह भूत है जाइ ।
दादू बहुस न बेलिये, सहज रहे समाह ॥ ७६ ४ भूछा भाँदू फेरि मन, मुरख मुग्ध गेँवार ।
सुमिरि सनेही आपणा, अआतम का आधार ॥ ७७ ॥ सन साणिक मूरख राखि रे, जण जण हाथि न देह । जादू पारिख जाहरो, रास साध देह लेहु ॥ «८ |
(१७ भेद को अंग
[दाद] मारस्याँ बिन साने लहीं, यहु सन हरि की आन । ज्ञान खड़ग गरदेव का, ता संग सदा सुजान ॥७९॥ (१-८६) सन सिरगा सारे सदा, ता का सीढा सॉँस। दोद खाइबे को हिल्या, ला थें आन उदास | द०ण्क: कहया हमारा सालि सन, पापो परिहारे काम । बिषया का झुेंग छाड़ि हे, दाठ कहि रे राख ॥ 5१॥ केता कहि समभ्काइणे, माने नहीं निलज्ज। मूरख मन समझे नहीं, कोशे काज जकज्ज ॥ ८२ ॥ सन हीं संजन कोजिये, दाद दृश्पण देह । माह मूर्ति देखिये, इहि ओखर करि लेह ॥ ८५३ ॥ सब हीं कारा' हाव है, हरि बिन चितवंस आन । क्या कहिये समस्त नहों, दाद सिखवत ज्ञान ॥ ५४ ॥ [दाद] पाणो घावें बावरे, सन का सेल न जाई । मन निर्मेला तब द्वाहगा, अब हरे के गण गाद् ॥ ८४ ।॥। [दाद |घयान घर का होत है, जे मत नहि निर्मल हे।ह । तौ बगे सब हीं ऊघरे, जे यहि थिथि सीफि कह ॥ ८५६ ॥ [दादू | ध्यान घर का हात है, जे नन का मेल न जाह । बग सीनो का धयाल घारे, पसू बिचारे खाह॥ ८० ॥ [दादू] काले थ चीलो भया, दिल दरिया मे थाहु-। मालिक सेतो समिलि रहा, सहज निमेल होह॥ ८८ ॥ [दाद | जिस का दर्पण ऊजला, से दसण देखे माह । जिस की मेली आरणसी, से। मुख देखे लाहिं ॥ ८६ ॥॥ दादू निर्मेल सुद्ठु सन, हरि रंग राता होड़ । दादू कंचन करि लिया, काथ कहे नहिं कह ॥ €० ॥ १और भोग वेस्वांद [उदास] होगये। २ काला, मल्ोन। ३ बकुला-।
मन को अंग ११
यह सन अपना थिर नहीं, करि नहिं जाणे काइ। दाद निर्मल देव को, सेवा क्यों करि हाइ ॥ १ ॥ दाद | यह मन तीन््यें लेक सं, ऋरख परस सब होइ। देही की रण्या करे, हम जिनि प्ीहे कह ॥ <र२ ॥ [दाद] देह जतन करि राखिये, मल राख्या नहिं जाइ। उत्तिम मह्ठिम बासना, हला बरा सज् खाई ॥ <€३ 0 दाद हाड़ो मुख मस्या, चास रह्य! रपदाह ।
माह जिभ्या माँख को, ताही सेली खाह ॥ ६९४9 ॥
नऊ दुबारे नरक के, निस दिल बहै:जलाह।
सुची* कहाँ लो कीजिये, रास सुिरि गण गाह ॥ ९५ ॥. प्राणी तन सन मिलि रहा, इंद्री खफकल बिकार ।
दाद ब्रह्मा सद्र चरि, कहाँ रहे आचार ॥ ६ 0
दाद जीबे पलक मं, मरता कल्प बिहाह ।
दादू यह मन ससकरा, (ऊजलि काह पतियाहु ॥ €७ ॥ [दादू |] मवा सन इस जोवल देख्या, जेसे मरहुदर परत । मूवाँ पीछ उठि उछठि लागे, ऐसा सेरा एूत ॥ रु८ ॥ 'निहचल करता जग गये, चंचल तब हीं होह।
दादू पसरे पलक -स, यह कझन खारे साहि ॥ <ंढ ॥ दादू यह मन मोड , जल सो जीबे सेह।
दादू यह मन रिंद* है, जिनि रू पतीज केहक्ह ॥ १०० ॥ माह सूषिप्त* है रहे, बाहरि पसारे अंग ।
पबत्त लागि पढ़ा भया, काला नाग भुबंग ॥ १०१ ॥
१ लोग देही की छुआ छूंत तो बचाते हैँ पए मन हर जगह सपश करता फिरता है-[भीडे >छू जाय] २ सफाई । ३ मरघट। ४ मेंडक | ५ लामज्ञह॒व, गया गुज़रा । ६ सक्तम ।
के
(५ मेने को अंग
मन भुवंग बहु बिष भस्वा, निर्बिष क्यों हीं न हाइ ।
दादू मिलया गुर गारुड़ी' , निर्थिष कोया सेाइ्ट ॥ १०२॥
सपना तब लग देखिये, जब लग चंचल होह।
जब निहचल लागा नाव सो, तब सपना नाहीं का ह ॥१०श॥
जागत जहँ जहँ मन रहे, सेतबत तहँ तहँ जादु ।
दादू जे जे मन बसे, से।ह से।इ देखे आह ॥ १०४ ॥
दोद जे जे चित बसे, सेह से।ह आवबे चीत ।
बाहर भीतर देखिये, जाही सेती प्रीस ॥ १०४ ॥
सावण हरिया देखिये, मन चित ध्यान लगाह।
दादू केते जग गये, तो भो हस्था न जाह ॥ ९०६ ॥
जिस को सुरति जहाँ रहै, तिस का तहँ बिखाम ।
भावे माया मेह में, भावे आतस रास ॥ ९००७
जहूँ मन राखे जीवताँ, मरता तिस घरि जाह ।
दादू बासा आण का, जहँ पहली रह्या समाह ॥ ९०८ ॥
जहाँ सुरति सहँ जीव है, जहँ नाहीं सह नाहिं ।
गण निर्गण जहें राखिये, द्ादू घर बन माहि ॥ १९०६ 0
जहा सुरति तहेँ जीव है, आदि अंत अस्थान ।
माया ब्रह्म जह राखिये, दाद तहँ बिखाम ॥ ११० ॥
जहाँ सुरति तहं जीव है, जिवन मरण जिस ठौर-।
बिष अमृत जहेँं राखिये, दादू नाहीं और ॥ १११ ॥
जहाँ सुरति तहें जोब है, जहँ जाणे तह जाह ।
गरस अगस जहेँ राखिये, दादू तहाँ समाह ॥ ११२ ॥
मन सनसा का भाव है, हंस फलेगा सेह 4--
जब दादू घाणक' बण्या, तब आसे आसण होइ ॥ ११३॥ १ साँप का दिष भाहते वाणा | ० संयोग।
भन का . अंग है|
जप तप करणी करि गये , सरण पहुँते* जाई ।
/ दादू मन को बासना , नरंक पड़े फिरि आह ॥श१शा पाका कार्चा हैं गया , जोत्या हारे डाव*। अंत काल गाफिल भया , दाद फिसले एॉाँव ॥ ११४ 0 [दादू] यहु मन पंगुल पंच दिन , सब कांहू का होह। दादू उतरि अकास यें, घरती जाया सेह ॥ ९९६ ॥ ऐसा कोई एक मन , मरे से जोबे नाहि । दादू ऐसे बहुत हैं , फिरि आब कलि माहि ॥ १९१० ॥ देखा देखो सब चले , पाशरि न पहुँचचा जाई । दादू आसणि पहले के , फिरि फिरि बेठे आह ॥११८॥
:- बरतण* एक भांति सब , दादू संत असत । भिन्न भाव अंतर घणा , मनसा तहाँ गछ॑त* ॥ १९६ ॥ यहु मेन सारे सेमिनों , यह सन मारे सोर । यहु सन सारे साथिकाँ , यह मन सारे पीर ॥ १२० ४ सन मारे मुनियर* मुए , सुर नर किये संघार | ब्रह्मा बिस्न महेस सब , राखे सिरजनहार ॥ १२१ ॥ मन याहें? सानयर बड़े , ब्रह्मा बिसन महेस। सिध्र साधक जेगी जतोी , दादू देस बिदेस ॥ १२२ ॥ पूजा समान बड़ाइयाँ , जादर मांगे मन । राम गहे सब पारहरे , सोहे साथ जन ॥ १२३ 0 जहे जहँ आादर पाइये , तहाँ तहाँ जिब जाह।. बिन जादर दोजे राम रस , छाड़ि हलाहल खाह ११२४१
| _... 8 ट( न है पेट |... १ पहुँचे। २ दाँव। ३ पहिले; -पहलू या वाज़ के अथे भी लगते है। “.. ' बर्तांब। ५ जाता है ; सम्षंध रखती है। ६ सुनिवर । ७ बहाये।
रैंप '
“११४ भन को अंग
करणो किरका' के नहीं, कथणी अनत अपार । दादू ये क्यू पाइये, रे सन सूढ़ गंवार ॥शश्शा . दाद मन भमितेक मंया, इन्द्री अपणे हाथ ।
सो क्षी कदे' न कीजिये, कनक कामिनी साथ ॥१२ अछ मन निरक्षय घरि नहीं, भय में बेठा आाहइ। लिरिक्षय संग थ बीछुख्या, तब कायर हूं जाइ ॥१२० जज घन मितक है रहे, इन्द्री बल भागा ।
छाया के सब गुण तजे, नीरंजन लागा ॥१२८॥ (७-४ आदि लंत समधि एक रस, टूटे नहि. घागा।
देह एके. रहि गया, तब जाणी जागा ॥१श६॥ (७ दादू मन के सीस मुख, हस्त पॉँव है जीव । स्रवण नेत्र रखना रहे, दादू पाया पीव ॥१३०१ जहूँ के नवाये सघ नव, सेोह्े सिर कि जाणि। जहें के बलाये बालिणे, खेह सुख परवाणि ॥१११श॥ जहें के सुणाये सब सुण, सेई लवण सयाण ।
जहें के दिखाये देखिये, साई नेच सुजाण ॥श्श्शा _ [दादू] मन हीं साँ मल ऊपजे, सन हीं सों सल घाइ सीख चले गुर साथ की, तौ तूँ निरसल हाह ॥१३३॥ दाठू मन हीं माया ऊपजे, सन हीं माया जाहु। ' मन हीं राता राम सौँ, मन्र हीं रह्मा समाह ॥१३४॥ [दादू ] मन हीं मरणा ऊपजे, मनहीं मरणा खाई ।
' सन अबिनासी हू रहा, साहिब सो ल्यो लाइ ॥१३श सन हीं सन्मुख नर है सन ही सन्मख तेज ।
मन हीं सन्मुख जाति है, मन हीं सनन््मुख सेज ॥१३६
नी
१ किनका (मात्र । २ कभी |
सूषिम जन्म को अंग श्श्पू
मन हीं साँ मन थिर भया, मन हीं. सो मन लाह । “मन हीं सा प्न मिलि रहा, दादू अनत न जाइ ॥१३थ! | ..__औ.इति मन को अंग समाप्त ॥ १० ॥ पे
... ११-सुषिम' जन्म को अंग... _[दादू | नमे। नमे। लिरंजनं, तमस्कार गुर देवतः | .. .. बंदन . सर्व साथवा, प्रणाम फारंगत: ॥९॥ डा [दादू | चौरासी लख जीव को, परकोरति घट. माहिं ।. अनेक जन्म दिन के करे, कोई जाणे नाहिं ॥२॥ .. 'दादू] जेते गुण ब्याप जीव कौ, लेते ही अवतार । आवागवन यहु दूरि करि, सम्रथ सिरजनहांर ॥३४. सब गुणा, सब ही जोब के, दादू ब्याप आह । हर “चर. भाहे जाम मरे, काई न जाणे ताहि ॥8॥ जीव जन्म : जाणे नहाँ, पलक पलक से हो । 'चारासी... लखभागवबै, दादू लखे न कोइ ४५॥ अनेक रूप दिन के करै, यहु मन आये जाह ।..... आयागवन मन का लिहै, तब दादू रहै समाह ॥ ६ ॥.. निस बासर यहु सन चले, सूषिम जीव सँघार । दादू मन, थिर ,कोजिये, आतम लेहु उचारि ॥ ७॥ . कबह:पावक कबहूँ पाणो, घर* झंबररे युण बाइ९। , फबहूँ: कुंजर कबहूँ कोड़ी, नर पखुवा है जाइ ॥ ८ 0 पूफर रवान.सियाल* सिघ, सर्प रहे बट माहिं। कुंजर . कीड़ी. जीव सब, पॉँडे' जाणे नाहिं ॥ 6॥7..
॥ इति सूषिम जन्म-को अंग समाप्त ॥ १३.
श्श्द माया को अंग
१५-साथा को अग [दादू] नमे। नभे। निरंजन , नमस्कार गुर देवत:। बंदन॑ सर्व साथवा , प्रणाम पारंगतः ॥ १॥ साहिब है पर हम नहीं , सब जग आदे जाइ। दादू. सुपिना देखिये , जागत गया बिलाइ ॥२॥ [दाद] माया का सुख पंच दिन , गव्यों कहा गेँवार । सुपिन पायी राज घन , जात न लागे बार ॥३॥ [दादू | सुपिन सूसा प्राणिया , कोये भेग बिलास । जागत फ्रूढठा हैं गया , ता की कैसी आस 0३ ॥ यों साथा का सुख मन करे , सेज्या सुंदरि पास । झंखसि काल आया गया , दादू होहु दा, ॥ ४ ॥ जे नाहीं से! देखिये , सूता सुपिन माह । दादू फम्रूठा है गया , जागै ते कुछ नाहिं ॥ ६ ॥ यहु सब साया सिर्ग-जल' , क्रूठा मिलिमिलि हे।इ । दादू चिरूका देखि करि , सति करि जाना सेइ ४था फुठा मिलिमिलि मिगं-जल, पाणो करि लीया । दादू जग प्यासा मरे , पसु प्राणी पीया॥५॥ छलावा छलि जाइगा , सुपिना बाजी सेइ । दादू देखि न भूलिये , यहुनिज रूप न होंहु ४६९॥ सुपिनें सब कुछ देखिये , जागे ता कुछ नाहिं। ऐसा यहु संसार है, समम्ि देखि मन माहि ॥१०॥ [दादू] ज्यों कुछ सुपिने देखिये , तैसा यहु संसार । ऐसा आपा ऐसा आपा जाणिये , फूल्या कहा गँवार ॥ ११ ॥
१ मग-जल से अभिप्राय मरीचिका या सराब से है जहाँ बालू के मैदान की ध्मक दूर से देख कर रूग को पानी का भोजा लुझाने को दोडता है। बप, दोता है और उस के पीछे प्यास
मांया की झ्ंँग श्श्ज
[दादू| जतन जतन करि राखिये, दिढ़ गहि आतम मूल । दूजे दृष्टि न देखिये , सब ही संबल फूल ॥१२॥ [दादू] नेनहुं भरि नहिं देखिये, सब माया का रूप । तहँ ले नेना राखिये , जहेँ है तत्त अनूप 0१३॥ हस्ती,हय,बर,घन देखि करि , फूल्यो झ्ंग न माह । भेरि' दसामार एक दिन , सब हो छाड़े जाह ॥१४॥ [दादू] माया बिहड़े” देखताँ , काया संग न जाह । फत्तम बिहड़ें बावरे , अजरावर* ल्यो लाहु ॥१४॥ [दादू] माया का बल देखि करि , आया अति अर्हकार । अंघ भया सूफे नहों , का करिहे सिरजनहार ॥१६४ सन मनसा माया रती' , पंच तस्त परकास। चोदृह तीन्यें लोक सब , दादू हाइ उदास ॥एण॥ माया देखे मन खुसी , हिरदे हा।हइ बिगास । दादू यहु गति जीव की , अंति न पूर्ण" आस ॥९१८॥ मन की मूठि न सॉडिये , साया के नीसाण । पीछ ही पछिताहु गे , दादू खोटे बाण ॥(१₹४॥ कुछ खाता कुछ खेलतलाँ , कुछ साबत दिन जाह । कुछ विषियाँ रस बिलसता , दादू गये बिलाइ ॥शणा .._? समाय। २ शहनाई, नफ़ीरो। ३ डंका। ४ बिछुड़े। ५ अकाल पुरुष । ६ रत, लोलीन । ७ पूरी होय । ५ ८ साखी १६ के झथ्थ पंडित चंद़िका प्रसाद ने विचित्र लिखे हैं । बद “बाण” के मानो तीर के, “सूठ” - कमान, “नीसाण”-:निशाना के लगाते हैँ । यद्द अर्थ खी चा तानी के और झशुद्ध जान पड़ते हैँ क्योंकि भाया को मन के तीर का
निशाना “न” बनाना उलटी वात होगी, और “खोदे ” तीर का मुदावरा भी
कभी सुनने में नहीं आया थोधे तीर अलबत्ते बोलते है ! हमारी समभ में तो साथे सादे मतलब यह है कि मन की हठ [ सूठ ] को रोको [न मॉडियेजत करिये| जिस का कुकांव या रुचि [नीखाण] माया को ओर द्वोती हे ; नहीं तो इस बुरी आदत [खोटे बाण] के लिये पीछे पछुताना पड़ेगा।
श्श्द् माया को श्यंग
माखण मन पाहण मया , माथा रस पीया। पाहण सन-“माखण मया , रास र्रुस लोया ॥ २१९१५... [दादू ] माया सै सन्त बीगड़चा, ज्यों काँजी करि दूध । है काई संसार में , मन करि देवे सुध' ॥ २२० गंदी. साँ गंदा भया , यों गंदा सब केाह । दादू- लागे खूब सौँ , ते खूब सरीखा हाइ ॥२श॥ [दादू ] माया से मल रत भया , बिषे रस्स मासा। दादू 'साचा छाड़ि करि , फूठे .रंग राता ॥२४ ॥ . माया के सेंगि जे गये , ते बहुरि न आये। दादू माया डाकिणो* , इन केते खाये ॥२५॥ [दादू ] माया मेट बिकार को , केह न सकह डारि। बहि बहि मृए. बापुरे , गये बहुत पत्चि हारि ॥२६॥ _ : [दादू |रूपराग गुण अंड़सरेर , जहेँ माया, तहँ जाइ। बिद्या. अष्यर* पंडिता , तहाँ रहे घर छाइ ॥२आ। साथ न कोई पण भरे , कबहूँ राज दुबवारि। दादू उलटा आप में , बैठा ब्रह्म बिचारि ॥रणा - [दादू | अपणे अपणे चारि गये , आपा श्रंग बिचारि.।-. सहकामी- माया मिले , निहकामी ब्रह्म सेमारि. ॥२०॥ [दादू | माया मगन जु है रहे , हम से जीव अपार । माया माहै. ले रही , डूबे काली- चार* ॥३ण। ॥ सवैया ॥ ह ४ [दादू ] बिचे के कारणे रूप राते रहें, ._ नेत्र नापाक याँ कोन्ह भाई। बदी की बात सुणत सारा दिन, ___स्॒वन नापाक यीं कीन्ह जाई ॥
मांया को अंग ल््श्रै
स्वाद के कारणे लुब्धि लागी रहे, जिभ्या नापाक यो कीन्ह खाई ।. - . . . भेग के कारणे भूख लागी रहै, . . अंग नापाक यो कीन्ह हाई ॥ ३१ 0 दादू नगरी चेन सब 5 जब हुक-राजो' होहू । देइ-राजी दुख दुद में, सुखी न बैसे काइ ॥३१२॥ इक-राजी आनंद है, नगरो निहचल बास । राजा परजा सुखि बस, दादू जेति प्रकास ॥३३॥ जैसे कुंजर काम बस , आप बैघाणा आइ । ऐस दादू हम भये , क्योकरि निकस्या जाइ ॥३९॥ स॑ मरकट जीभ रख , आप बेँघाणा संघ । ' ऐसे दादू हम भथे,, व्योंकरि छूहे फंघ ॥३४॥ ज्यों सूवा सुख कारणे , बंध्या सूरख माहिं। ऐस दादू हम भये , क्यौंही लिकस लाहिं ॥३६॥ - जरसे ध्ंघ आज्ञान शह, बंध्या मूरख स्वादि।/ ऐसे. दादू हम भय्रे , जन्म गंवाया बादि ह३०॥ . (दादू] बूड़ि रहा रे बापुरे , साया गृह के कृप । मेह कनक अरू कामिनो » नाना बिधि के रूप ॥३८॥ [दादू | स्वाद् लागि संसार सब , देखल परले जाइ ।: इंद्री सारथ साच तजि , सबै बँघाणे आह 0३९: बिष सुख माह रमि रहा , माया हित चित- लाह.। सेई संत्त जन ऊथरे , स्वाद छाड़ि गुण गाह ॥एशा दाहू भूठी काया फ्रूठछ घर, फ़ूठा यह परिवार । ऊूँठी माया देखि करि , फूल्यी कहा गेंबार ॥9१0 हटा माया देखि करे , फूल्यी कहा गेंबार ॥0१॥ १ एकद्दी का राज़ | जा
पे
"६४३० माया को अंग
॥ कबित्त ॥
[दादू ] क्ूठा संसार, क्रूठा परिवार, फ़ूठा घर बार, फ़ूठा नर नारि, सहाँ मन माने । फूठा कुल जाति, क्रूठा पित मात्त, ऋूंठा बंध स्वात, कूठा तन गांत, सति करि जाने ॥ फूठा सब चंघ, फूठा सब फंघ, हु फूठा सब अंघ, फक्ूठा जा चंद, फहा मधु छान | दादू भागि, क्रूठ सब त्यागि, जागि रे जागि, देखि दिवाने ॥ ४२ 0 दादू कूढे तन के कांरणे , फीये_ बहुत बिकार । गृह दारा घन संपदा , पूत कुटुंब परिवार ॥ 8३ 0 ता कारण हति आसमा , भकूठ कपट अहंकार ॥ से! साटी मिलि जाहुगा, बिसस्था सिरजनहार ॥३४॥ [दादू] जन्म गया सब देखताँ, क्ूठों के संग छागि । सांचे प्रीतम के मिले , भागि सके तो भागि ॥४४॥ ॥ छुंदू ॥ | [दांदू] गत शहं, गतं घनं, गत दारा सल जाबन । गत॑ माता, गतं पिता, गतं बंघु सज्जन ॥ गते आपा, गत॑ परा, शर्त संसार कत रंजन । भजसि भजसि रे मन, परब्रह्न निरंजन ॥ ४६ ॥ जीवाँ माह जिब रहे , ऐसा साया भेह। साह सूधा सब गया , दादू नहिं ध्ंदे।हर ॥9७॥
१ गया। २ फ़ारसी शब्द अंदोह' का अर्थ ग़म, शोक होता दे; हिन्दी मे संदेह - अंदेशा । हि ह। हो हे .] हेग्दी
भाया को अंगे १२४६ भाया मगहर' खैत खर , सद् गति कदे न होह । जे बंच ते देवता, राम सरोखे सोह ॥४८* ॥ कालरि' खेत न नोपजे, जे घाहे सो बार । दादू हाना बीज का, क्या पशथि मरे गँवार ॥५९॥ दादू इस संसार सो , निमख न कोजे नेह । जामण मरण आवदठणा5 , छिन छिन दाम देह ॥४०॥ दादू मेह संसार का , बिहरें" तन मन प्राण । दादू छूटे ज्ञान करि , के साध्ल संत सुजाण ॥४९१॥ मन हरुती माया हरितनी ,, सघन बन संसार ! ता में निर्भय है रह्मा , दादू मुग्ध गेंवार ॥४२॥ [दादू ] काम कठिन_चटि चार है, घर फोड़े दिन रात | 'सेवलस साह न जागई , तत्त बरत ले जात ॥५६॥ काम काठिन घटि चेर है , मसे मरे सेंडार । सोवल ही ले जाइगा , चेतनि पहरे चार ॥४४॥ ज्याँ घुन लागे काठ का , लोहे छागे काट । कास किया घट जाजरा” , दाद बारह बाद 0४५७ राहु गिलेः ज्यों चंद का , गहण गिले ज्यों सूर। कमे गिले याँ जीव का , नखसिख लागे पुर एश५६॥ [दादू ] चंद गिले जब राहु काँ , गहण गिडे जब सूर । -जीब गिले जथ कर्म का , राम रह्या भरपूर ॥५०॥
१ काशी के गंगा पार के खेताँ को मगहर भूमि कहते है और कहावत हे कि वहाँ मरने से गधे का जन्म मिलता है सो ददु साहिब ने माया को उपमा उसी भूमि से दी है, अर्थात दोनोँ ढुर्गति की दाताहे । २ऊसलर ३ जोते। ४ जन्म * मरन की तपन। ५१ फूद जाना। ५ मोस्चा। ७ जरजर, निवल। ८ तञ्रखे |
१६
श्श्र् मांया को अंग
कम कुहाड़ा' अंग बन , काठत बारम्थार । भर ं है + अपने हाथों आप को , काटस है संसार ॥५८॥ जआपे मारे आप को , यहु जीव बिचारा । साहिब राखणहार है , से। हितू हमारा ॥४८॥ आपे मारे आप को , आप आप की खाद । आपे अपण। काल है , दादू कहि समभ्काहई ॥६०॥ मरिबे को सब ऊपजे , जीबे की कुछ नाहिं । जीबे की जाणे नहीं , मरिब्र को मन माहि ॥६१॥ बंध्या बहुस बिकार सौँ , सर्व पाप का सूल । ढाहै सब आकार को , दादू यहु अस्थूल ॥दर॥ [दादू ] यहु ते देजग" देखिये , काम्त क्रोध अहंकार । शते दिवस जरिबे| करे , आपा अगिनि बिकार ॥६३॥- बिये हलाहल खाहु करि , सत्र जग सरि मरि जाइ । दादू मुहरारे नाँव ले , रिदे राखि लयो लाइ ॥६४॥ जेसलो बिषया बिलसिये , तेती हत्या हाह । प्रत्तषिः साणस* मारिये , सकल सिरोसणि सह ॥६४॥ बिषया का रस सद भया , नर नारो का सास। साया माते मद पिया , किया जन्म का नास ॥६६॥ [दादू ] भावे साकत* भगत्त है, बिषे हलाहल खाद । तहें जन तेरा राम जी , सुपिने कदे न जाइ ॥६थ॥। खाड़ाबूजो भगति है , लेहर-बाड़ा माहिं । परणगट पेड़ाइत बसे , तहेँ संत काहे कौ जाहिं ॥६८९॥ १ कुल्दाड़ा ।२_ नके।३ ज़हर मुद्दरा। ४ प्रत्यक्ष । ५ मन। ६ नियुरा। ७ खाड़ाबुजी > गढ़े भे छिपाई हुईं अर्थात धोखे या कपट की । लोहरवाड़( > चोरों को एक बस्ती का नाम | पेड़ाइत-प पीड़ा देने चाले या दुष्टप्राणी । दादू द्याल
न कपट भक्ति को उपमा इस चोर बस्तो से दृ। है जिख के निकट संत ख़ुपन में भी नहीं जाते अर्थात कपट को भक्ति से संतों को घृणा है ।
।
साया का अंग ह श्श्३े
साँपणि हुक सब जोब को , आगे पीछे खाइ ।
दादू कहि उपगार करि , कोइ जन ऊबरि जाइ 6६६ ४ दादू खाये साँपणोी , क्यों करि जीव लेग ।
राम मंत्र जन' गारड़ो* , जीव यहि संजेग 0७ ७० ॥ [दाद | माया कारण जग मरे , पिव के कारणि केाइ । देखी ज्यों जग परजले , निमख न न्यारा हाह ॥ ०१॥ - काल कनक अरू कासिनी , परिहरि इस का संग । दादू सब जग जलि सुवा , ज्यों दोषक जे।ति पतंग ॥ ७२ 0 [दादू | जहाँ कनऋ अरू कामिनि , तहूँ जीव पतेंगे जाहिं । आगि अनेत सूफ़ नहीं , जलि जलि मृए माहि ॥०७३॥ घट माह माया घणो , बाहरि त्यागी हाह ।
फाटी कंथारे पहरि करे , चिहन* करे सब केाह ४०७४ ॥ काया राखे बंद दे , मन द॒ह दिखसि खेले ।
दाद कनक अरू कामिनी , माया नहिं मेले ॥ ५४ ॥ दादू मन सो सीठी मुख से खारी ।
माया त्यांगो कहे बजारी ॥ ७६ 0
साया संदिर सोच का , ता में पेठा घाह।
अंच भया सूफ़ै नहीं , साथ कह समभ्काह ॥ ७७ 0 दादू केते जलि म॒ुए , इस जाोगी की आगि ।
दादू दूरे बंबचिये , जोगी के संग ढलागि ॥ ८८ ॥ ज्यों जल मंणी* मंछली , तैसा यह संसार ।
माया माते जीव सब , दाद मरत न बार ॥ ७६ ॥
“पनजपाा प्र" ८7-----&-.... _ १ एक लिपि में “जन” को जगह “गुरु” है। २ साँप का विष झाडने वाला। गुदड़ी । ७ चेन | ५ भीतर।
१२४ भाया को अ्रंग
[दाढू ] माया फोड़े नैन देह , राम न सूके काल ।
साथ पकारे मेर' चढ़ि , देखि अगिनी को माल ॥५०
बिना प्रवंगण हम डसे , बिन जल डबे जाहू ।
बिनहीं पावक ज्याँ जले , दादू कुछ न बसाइ ॥5१॥
[दादू | अम्लूत रूपो ज्यप है, और सबे बिष भ्हाल ।
राखणहारा रापत है , दादू दूना काल ॥५२॥
बाजी चिहर' रचाह करि , रह्या अपरछनरे होड़ ।
मया पट पड़दा दिया , सा थे लखे न कोइ एप
दाद बाहे देखताँ , ढिग ही ढोरी लाइ ।
पिल पिच करते सब गये , आपा दे न दिखाहु ॥ ५8५
में चाहूँ से ना मिले , साहिब का दींदार ।
दाद बाजी बहुत है , नाना रंग अपार ॥८५॥
हम चाहेँ से। ना मिले , ओ बहुतेरा.आाहि।
दादू मन माने नहों , केता आवबे जाहि ५५६०
बाजो मेहे जीव रब , हम को भुरको बाहि*।
दादू केसी करि गया, आपण रह्या छिपाह ॥८७॥
दाद साइ सतक्ति है , दजा भर्स क्रिकार ।
नाँव निरंजन निमला , दजा चे।र झंघार ह८८॥
दादूं से घन लीजिये , जे तुम्ह सेती होठ ।
माया बाँघे केईं सुए , पूरा पड़चा न काइ ॥ष्टा
[दादू कहे] जे हम छाड़ हाथ थे, त्रे तुम लिया पसारि। हम लेव प्रीति रूों , से तम दीया डारि ॥<णा
१ पहाड़।२ विचित्र । ३ गुप्त। ४ईश्वर ने जीवाँ के ढिग (साथ) ढोरी (चाह लगाकर उन को जगत म्॒ बाहि (भरमा) रक्खा है-पं० चं० प्र०। ५ मंत्र ड़ाल़ा।
|
| भौरोँ को बाँटा (बित
जा
माया को अंग श्श्प्
[दादू |] हीरा पग सो ठेडि क्रि, कंकर को कर लोन्ह । पारब्रह्म को छाड़ि करि, जीवन सो हित कोन्ह ॥6€१॥ [दांदू ] सब को घणिजे खार-खलि' , होरा कोड न लेड । हीरा लेगा जीहरो, जा माँगे से देह ॥ €२ ७ दड़ो' दे।टरे ज्याँ मारिये, तिहू लेक मे फेर ।
घुर पहुँचे संताष है, दादू चढ़िबा मेर ॥ ३ ॥ अनलपंखि* आकाश के, माया मेर उलंधि ।
दादू उलदे पंथ चंढ़ि, जाइ बिलम्बे अंगि ॥ ६? ॥ [दादू |माया आग जीव सब, ठोढ़े रहे कर जाड़ि ।
जिन सिरजे" जल बंद सौ, ता से बेठे ताड़ि ॥.९४ 0 सुर नर मुनियर बसि किये, ल्लह्मा बिघुन महेस ।
सकल लेक के सिर खड़ी, साध के पण हेठ ॥ «६ ॥ [दादू | मांया चेरी संत की , दासी 'उस दरबार । ठकुराणी सब जगत को , तीन््यें लेक मेँम्कार ॥ ९७ ॥ [दादू | माया दासी संत की , साकत को सिरताज । साकत सेती भाँडणोपए , संतों सेली लाज़ ॥ €८॥ चारिपदारथमुक्ति बापुरी , अठ सिथि नौ निधि चेरी । माया दासोी ता के आगे , जहँ भक्ति निरंजन तेरी ॥<च्ा [दादू कहे] ज्याँ। आवबे त्याँ जाह बिचारी।
बिलसी बितड़ी ने माशे मारी$॥ १०० ॥
[दादू | माया सब गहले*” किये , चौरासी लख जीव । ता का चेरी क्या करे , जे रँंग राते पाँच ॥ १०१ ॥
“गए ज्कणजत के जप सके पक पर उ 7 77 छू 7 १ संसार खारी और फोक चौज़ें” अर्थात कूड़ा करकट का गाहक है। २ गेंद ३ चोट। ४ मेर पद्दाड़ । ५ अलल पच्छ या सार
है दूल चिड़िया जो आकाश ही मे रहता है । ६ रचा ७ नेलऊ ; काश ही मे;
ज्ज । ८ संतों ने माया को आप यथार्थ रीति से विल्लसा,। ड्री)ओए (न) फि९ घप्प मार कर निकाज्ञ दिया । & पागल
१२६ माया का अंग
दाढू ] माया बैरिणि जोब की , जिनि के लाजे प्रीति । प्राया देखे नरक करि'* , यहु संतत की रीति॥ १०२ ॥ प्राता सति चकचाल करि* , चंचल कोग्रे जीव ।
पाया माते मद् पिया , दादू बिसस्था पीव_॥ १९०३॥ जणे जणे , को रामकोरे , घर घर को नारो | पतिबन्रता नहिं पीव की , से मा मारी | १०४ ॥ जण जण के उठि पीछे लागे , घर घर मरमत डेछे।' ता थे दादू खाद तमाचे , मंदल दुहु मुख बलि ॥ ९०४ ॥ जे नर कामिनि परिहरें , ते छूटे गर्ल-चास ।
दादू ऊँधे! सुख नहीं , रहें निरंजन पास ॥ १०६ ॥ रोक न राखे क्रूठ न भाखे , दादू खरचे खाह ।
नदी पूर परबाह ज्यें, माया आबे जाई ॥ १०७ ॥ सदिका सिरजनहार का , केता आबे जांइ ।
दाठदू घन संचे नहीं , बेठ खुलाबे खाद ॥ १०८ ॥ जेगणि हैं जोगी गहे , सेफणि* है करि सेस । भगतणि हैं भगता गहे , करि करि लाना सेस ॥ १०८ ॥ बुचि बसेक बल हरणो , त्रथ तन ताप उपावनी । अंग अगिनि परजालिनी , जिव घर बारि नचावनी ॥१९०॥ नाना बिंथधि के रूप घरि , सब बंधे सामिनी ।
जग बिटंब” परले किया , हरि नाम प्लुलावनोी ॥१११४
ही नरक समान | २ भत को भरमा कर। ३ फारसी में राम चेरे को फहते हैं; रामक ८ छुद्र चेरा, “रामकी” छुद्ग चेरी। ७ ढोलक जो दो मँँह से बोलती है और इस लिये तम/चा (चटकना) खाती है। ५ गर्भ में' बच्चा आँधे मुँद रहता है। ६ नाधिव । ७ पशारा, ढकोलला । '
माया को अंग - "|
बाजींगर- की पूतरी , ज्यूँ मरकट मेह्या।
दादू माया राम को , सब जगत बिगे।या ॥११९
मेरा मेरी देखि करि , नाचै पंख पसारि।
यौं दांदू घर आँगणे , हम नाचे के बारि' ॥११३॥
[दादू ] जिस घट दीपक राम-का , तिस घट तिमर न हा हू [8-१६६]
उस उजियारे जोति के , सब जग देखे सेइ ॥१९१४॥
[दादू ]जेहि घट ब्रह्म न परगदे , तह माया संगल गाइ ।
दादू जागे जेति जब , तब साथा भरम बिलाइ ॥११३॥
[दादू ]जे[सो चसके तिरवरे , दीपक देखे लेइ ।
चंद् सुर का चाँदणा , पगार* छलावा हे।ह ॥११६॥
दादू दोपक देह का , माया परमणट हेड ।
सौरासो लख पंखिया , तह परे सब काइ ॥११०॥
यहु घट दीपक साध का , ब्रह्म जेति परकास।
दादू पंखी संत जन , तहाँ परे निज दास ॥९१९८॥
दादू मन मिरतक भया , इंद्री अपणे हाथ ।
तो री कदे न कीजिये , कनक कामिनो साथ ॥0११६॥
जाणे बूफ़ले जीव सब , ज्रिया पुरुष का झंग ।
आपा पर भूला नहीं , दादू केसा संग ॥१२०॥
साया के घट साजि है , त्रिया पुरुष घरि नोड ।
टून्यूं सुन्दर खेले दादू , राखि लेहु बलि जाँड ॥१२१॥
बहण बोर करे देखिये , नारो अरू भतार ।
परमेसुर के पेट के , दादू सब परिर १२२
कि, कई बार। २ मिलमिलाय | ३ पगार के ठीक ,अर्थ गुजराती भाषा में तनख़ाह” के हैं परंतु यहाँ “चमक” से मतलब है। “पगार छुलाचा” का - अभिष्नाय झूसों की लाकरी या शहाबा स है |जस मेँ भूठा प्रकाश दोख पड़ता है।
श्श्८ माया को अंग
पर घर परिहरि आपणी , सब एके उणहार ।
पसु प्राणी समझे नहीं , दादू सुग्ध गेंवार ॥१२३॥ परिष पलदि बेटा भया , नारी माता होठ ।
दाद के" समझे नहीं , बड़ा अधंभा सेहि ॥१२४॥ माता नारी परिष की , परिष नारे का प्त । दादू ज्ञान बिचारि करि , छाड़ि गये अवध्यत ॥१२५॥ ब्रह्मा बिस्न महेस लौं , सुर नर उरभ्काया । बिष का अम्तुत नाँव धरि , सघ किनहू खाया ॥१२६॥ [दादू] माया का जल पोव ता , ब्याथी हाह विकार । सेफ़रेरे का जल पीवता , प्राण सुखी सुध सार ॥१२ण। जिव गहिला जिव बावला , जीव दिवाना हेड । दादू अम्ल छाड़ि करि , बिष पीबै सब कोइ ॥९२८॥ माया मेैली गणमहें , घरि घरि उज्जल नाँव। दादू भेहे सबन के , सुर नर सब्च ही ढाँव ॥१२९॥ विष का अमृत नाव घरि , सब कोाहे खाजे ।
दादू खारा ना कहे , यहु अचिरज आये ॥१३०॥ [दाद] जे बिष जारे खाह करि, जिन सख में मेले । आदि अंत परलय गये , जे बिष से खेले ॥१३१॥ जिन बिष खाया ते भुए , क्या मेरा क्या तेरा । आगि पराहे आपणी , सब करे निबेरा ॥ १३२
[दादू कहै] जिनि विष पोबे बावरे, दिन दिन बाह़े रोग । देखत ही मरि जायगा , तजि बिषया रस सेग ॥१३३॥
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१ खदश, रूप | २ कोई | ३ सोत।
माया को झग १२६
अपणा पराया खाइ बिष , देखत ही मरि जाय। दादू को जीबे नहीं ,ह॒हिं मारे जिनि खाइ॥१३४। ब्रह्म सरीखा हाह करि , माया सूँ खेले । दाढू दिन दिन देखताँ , अपणा गुण मेले ११३४ माया मारे लात सूँ, हरि के घाले हाथ । संग तजे सब फ्ूठ का , गहे साच का साथ ॥९श३ घर के मारे बन के मारे , मारे स्वगे पयष्ल। सूषिस मेटो गँधि करि , माँझा साया जाल ए१३श . ऊप्तान सार बैठ बिचारं , संप्त़ारं जागत सूता। तीन लेक तत जाल बिडारं , तहाँ_ जाइगा पूता ॥१३८॥ मुए सरीखे है रहे , जीवण फो क्या आस | दाठू राम बिसारि करि , बाँछे' भे|ंग बिलास ॥१३९॥ माया रूपी राम के, लब कोई घ्यावे। अजऊख आदि अनादि है , से। दादू गाव ॥ १३४० ॥ ब्रह्मा का बेद्बिस्नु की मूरति, पूजे सब्य संसारा। महादेव की सेवा लागे , कहँ है सिरजनहारा ॥१४१॥ माया का ठाकुर किया , माया को महिमाइ । ऐसे देव अनंत करि , सब जग पूजन जाडइ ५१४२७ माया बैठी राम है , कहे में हो मेाहन राह। श्रह्मा बिस्नु महेस रहो , जेनी आवबे जाइ ॥१९३॥ साथा बेठो राम है,ता के लखेन केाह । सब जग माने सत्त करे , बड़ा अ्र्ंत्ता माहिं ११४४ अजन किया निरंजना , गुण लिमुण जाने । उ्ा दिखाबे अधर करि , कैसे सन माने 0१४४"
१ भूले से । २ त्यागे। ३ खड़।। ४ पवित्र। ५ माँगे।
१३० माया को अंग
निरंजन की बात कहि , आबे अंजन माहि । दादू मन माने नहीं , सगे रसातलू जाहि ॥१४६॥ दादू कथणी और कुछ , करणो फरे कुछ ओर । तिन थे मेरा जिव उरे , जिन के ठीक न दर ॥१४४: कामघेनु के पटतरे* , करे काठ की गाइ ।
दादू दूध दूफ़े नहीं , मूरखि देहि बहाह ॥१४८॥ चिंतामणि' कंकर किया , माँगे कछू न देह ।
दादू कंकर डारि दे , चिंतामणि छर लेह ॥१४६॥ पारस 'क्ियां पषान का , कंचन कदेर न होहु ।
दादू ज्वतम राम बिन , भूलि पड़धथा सब कोइ ॥१४ सूरिज फटिक पषाण का, ता सूँ तिमर न जादू । साचा सूरिज परगहे , दादू तिमर नसा३॥१४१॥ मूरति घड़ी! प्राण की , कीया सिरजनहार ।
दाठदू साच सूके नहीं , यें ड्ुबा संसार ॥१९४२॥ पुरिष बिदेस कामिणि किया, उसही के उणहारि* । कारज के सीमै नहीं , दादू माथे मारि ॥१४श कागद का माणस किया , छत्नपतोी खिर सोर।
राज पाठ साथे नहीं , दादू परिहरि और ॥१४४॥ सकल भवन भाने घड़े , चतुर चलावणहार ।
दादू से। सुक्ते नहीं , जिस का वार न पार ५१४५
-५ यदि झ्ली परदेस गये हुए पुरुष के सरीजीं सूरत बना कोई काम नद्दी निकल सकता। ड़ कर रक्खे तो उरू
भाया को अंग र३े१
[दादू] पहिलो आंप उपाह करि , न््यारा पद् निर्बाण । ब्रह्मा बिसनु महेस मिलि , बंध्या सकल बंघाण' ॥ ९४६ ॥ नाँव नोति जनीति सब , पहिली थाँचे बंध ।
पसू न जाणै पारघी* , दादू रोपे फंघच ॥ १४७-॥ दादू बाँचे बेदू बिधि , भरस करम उरककांह । _ मरजादा माह. रहै , सुसिरण किया न जाइ ॥ १४५॥ [दादू] माया मींठी बेलणी, ने ने लागे पाँइ ।
दादू पैसे पेट में , काढ़ि कलेजा खाइ ॥ १४६ ॥ नारी नागणि जे उसे , ते नर मुए निदान ।
दादू के! जीवे. नहीं , पूछी सबे सयान ॥ १६० ॥ नारी नांगणि एक सी , बाधणि बड़ी बलाइ !
शढठू जे नर रस भये , सिन का सरबस खाइ 0१६१५ तारी नैंन न देखिये , मुख से नाव न लेइ ।
कानों कासणि जिनि सुणे , यहु मण जाण न देह ॥ १६२ ॥ सुंदरि खाये साँपणी , केते यहि कलि माहि । आदि अंत इन सब डसे , दादू चेते नाहिं ॥ १६३- ' दादू पैसे पेट में , नारी नागणि हाई । ह दादू प्राणी सब डसे , काढ़ि सके ना कोइ ॥ १६४ ॥ साया साँपणि सब डसे , कनक कासमणो होइ । ब्रह्मा बिस्नु महेस लो , दादू बचे न कोइ ॥ १६४ ॥
! १ निरंजन जोत (काल और माया) ने ब्रह्मा, विश्नु, मद्देश, को पैदा किया और फेर निरंजन स्यारे होकर निरवान पद में सतपुरुष के ध्यान में लग गये और तीनों देवता झोर माया ने मिलकर सब रचना ज्िलोकी की करो और सब
प्रकार के बंधन जीव को अपनी अमलदारी से बाहर न जा सकने के निमिश् फैलाये। २ शिकारी । ३ झुक कुक कर । ८ स
१३२, मांया को अंग
माया मारे जीघ सब , खंड खंड करि खाह ।
दादू घट का नास करि, रोते जग पतियाइ ॥ १६६॥ बाबा बाबा कहि गिले* , भाई कहि कहि खाई ।
पूत पूत कहि पी जई , पुरिषा जिन पत्तियाई ॥१६५। ब्रह्मा बिस्नु महेस को , नारी माता होड़ ।
'दादू खाये जीव सब , जिनि रू पतीजे कोड ॥ए६८/ माया बहुरूपी नटणो नांचै, छुर नर मुनि के सेहै । ब्रह्मा बिस्नु महादेव बाहे , दादू बपुरा के है ॥ १६९ ॥ साथा पासोरें हाथि ले , बैढी गेप छिपाह ।
जे काह घीजे प्राणियाँ ,ताही के गलि बाहि ॥ १७० ॥ पुरिषा पांसी हाथि करि , छामणि के गलह बाहि । कामणि कटारी कर गहे , मारि पुरिष कू खाह ॥ १०१ ४४ नारी बैरणि पुरिष की , पुरिषा बेरी नारि।
अंति कालि दून्यूं मुए , दाहू देखि बिचारि॥ १०२॥ नारी पुरिष कूं ले मुई , पुरिषा नारी साथ।
दादू दून््यूँ पचि मुए , कछू न आया हाथ ॥ ९७३ ॥ भेंवरा लुब्यो बास का , कंबल बेंघाना आह ।
दिन दुस माह देखता , दून्यें गये बिलाइ ॥ १०४ ॥ नारी पीबे पुरिष कूँ, पुरिष नारी के खाह। दादू गुर के ज्ञान बिन , दून्यें गये बिलाह ॥ १७४ ॥
॥ इति माया को अंग समाप्त ॥ १२ ॥
सांच को झंग रे ११-साच को अंग
[दांदू ] नमे। नमे। निरंजन , नमस्कार गुर देवस: । बन्द्नू॑ से साथवा , प्रणास पारंगलसः: ॥ १ ॥ ॥ निर्देई-मांसाहारी ॥
वि के कर | [दादू] दया जिन्होँ के दिल नहीं, बहुरि कहाव साथ ॥ जे मुख उन का देखिये , (तो) छागे बहु अपराध ॥२४ [दादू | मिहर मुहब्बत मन नहीं, दिल के बज कठोर. काले काफिर ते कहिया , मेमिन' मालिक ओर ॥६॥ [दादू ] कोड काहू जीव की, करे आतमा घात । साच कहूँ संसा नहीं , से! प्राणी देजणशिर जास ॥89॥ [दादू | नाहर सिंह सियाल सब, केते मूसलमान। माँस खाह मेमिन भये, बड़े सियाँ का ज्ञान ॥५॥ [दादू ] माँस अहारी जे मरा , ते नर सिंह सियाल-। बग'* संजार* सुनहा सही , एसा परतषि” काल ॥ ६ ॥ [दादू | मुह्े भार माणस चणे , ते परतषि * जम काल ! मिहर दया नहिं सिंहद्लिन, कूकर काग सियाल ॥ ७।
तन
बन हे * अनन्त _ ७० >->>-+०-त..>०>न्म
१ कहना चाहिये।२ सच्चे मालिक का ईमान या निश्चय रखने चात्ले |
३ दीज़ख़-नके। ४ बगुला । ५ बिल्ली । ६ कुत्ता । ७ प्रत्यक्ष) ८ संग दिल --कठोर। & शराब । ह
१६४ साथ को अंग
४ 77 उन्हीं की मीर ।
« ला ध्छ > अल रद ड्न्ह
छंगर लेग लेम से लागे, '"हअंत उनहीं सूँ सीर ९१ ॥ ज छ्ं ७
जेर जुर्म, घीच बटपारे, 4 9 दैखि करे ताजीर।
तन मन मारि रहे साई ४ #क्ता औडियापीर॥१०४ ॥
ये बड़ि यूफ़्रि कहाँ हर पाई! जोश्त खुदनों ।
हक <: 4 ९ ५
बेमिहर गुमराह हम , हयात मुदेनी ॥ ९९३ ॥
बेदिल (३ आठ करि घाह कि भार जेहि तेहिं फेरि।
छल करि बल की ये , परणे सगी पतेरि४ ॥ १२ ॥
दाद तचाहि “क्षंदि हबाँधि करि, बैठे दीन गँवाह ।
मि 7 ८ [दादू ] डे दारि करि , करद कप्ताया खाइ* ॥ १३॥ नेकी नाव काटे कलमा भरे, अया बिचारा दोन ।
[दा | बल निमाज गुजारै, स्याबित नहीं अकीन ॥१४६ ॥ पाँची ब ___ 77 द्द्न्ष विश संखारी लिंगर लोग] उन निदई वेईमानों का
१ झाखी न कर करही की सी बोली बोलते हैँ, ऐसे लोग आत्याचार और प्च्छ /25: करते कटी पद के ठग [बढपार] हैं ओर यह जीव जनम भर ऐसोँ दुएता [जे सीर देता है। ही का की शा हो भक्त जन तन मंन को नीचा डाल कर मालिक की सेवा ऑऔलगे हैं उन से ऐसे ठुजन विरोध [ताजीर] रखते हैं; न जाने यह अनूठी अमभौती [बड़ी बूकि] महात्माओं और खदुउपदेशकों [औलिया पीर] के घाव किज्ञा] की कहाँ से घारन की |
३ खजख्ती नं० $९-निडर [विमिदर| विमुख्न [गुमराह] अचेत (ग़ाफ़िल) मांस अद्वारी गोश्त ,खुर्दनी] कपटी [बे-देल] कुक्र्मी [बिद्कार], संसा< में [आलम] जीते जी ग्छ॒वक तुल्य [हयात सुदनी] है।
४ पेसे का कभी विश्वास न करे [घीजिये] वह अपनी सगी बहिन [पतेरि] से ब्याह कर ले हक तो अचरज्ञ नहीं | ॥
५ छुरी की कमाई (यानी गोश्त जिस को छुरे से काटते हैं ) खाता है ।
* मुसलमान दीन आधीन बकरे (अया) को लिबह करने के गज कब पते पिन पाँचें चकृत की नमाज पढ़ने से क्या होता है जब प्रतीत (यकीन)
साथ को अंग “१३५
दुनियाँ के पीछे पड़चा , दोड़धा दोड़चा जाह ।
दादू जिन पेदा किया , ता साहिब कू छिटकाइ ॥१४॥ कफर' जे के मन मे , मीया मूसलसान ।
दा चेघाः ऋंगरे में , बिसारे रहमान ॥ १६ ॥
पु
री ँ ्ं * आपस को मारे नहीं , पर को भारन जाह !
दादू आपा मारे बिना , केसे मिले _ खुदाइ ॥ ९७७ भीतर दुंदर* भरि रहे , लिन को सार नाहिं। साहिब को अरवाह को , ता को समारत जाहि ॥ १५४७ [दादू] मूए कौ क्या मारिये, सीयाँ मूह सार । आपस'न को मारे नहीं , औरों को हुसियार ॥ १६ ॥ ९ ॥ खाच ॥ जिसका था तिस का हुआ, तो काहे का दास । दादू. बेंदा बंदगी , सीयाँ ना कर रोसख २०१ सेवा सिरजनहार का , साहिब का बंदा । दादू सेवा बंदगो , दूजा क्या घंघा 0 २९ ॥
॥ काफर यानी असांध की रहनी ॥
हे ॥ चौपाई & ॥ * राख से। काफिर जे। बे!ले काफ । दिल अपणा नहिं राखे साफ ॥
58 ०] |] ०७ पे पं साई का पहिचाने नाहीं। कूड़ कपठ सब उस हो माही ॥२॥ साईं का फुरमान न माने , कहाँ पोव ऐसे करि जाने । सन आपणे मं समस्त नाहीं । निरखत चले आपणो छाहीं
0 २३ ॥
१ जिस के मन में संसार को चाह ओर मालिक की अचाद है। २ पड़ा।
हे झगड़ा | ४ अपनपी । ५ हुई, सरम, कलह । ५ झूहे, जीवाँ। ७ भाया, ममता । म हँगता। & नीचे की आठ कड़ियाँ और फिर दो दोहें के आगे की झ्ाठ कड़ियाँ चोपाई की है जिन पर एक ही नंबर होनां चाहिये लेकिन जो कि पाँचो लिपियोँ
और छापों में दोहा की तरद्द दो दो कड़ियाँ पर नंबर दिये है वही तरीका काइम रक्षा गया। |
१३८ साच को अंग
काया कत्तेबल. बालिये , लिखि राख रहिमान' अनती मज्ना बालिये , सुरता" है सुबहानरे ॥9१॥ [दांदू] काया महल मे निमाज गुजारू, तहें आर
न आवन पावे। मन मनके* करि तसबी* फेर, लब खाहिब के सन भावे॥४४ दिल दरिया मे गुसल'" हमारा, ऊजु? करि 'चत लाऊ | साहिब आगे करू बंदगी , बेर बेर बलि जाऊँ ॥8३# [दादू] पंचों संणि सेमालें साईं, तन सन ते सुख पाऊँ प्रेम पियाला पिवजी देवे , कसा ये लय लाऊंँ ॥४श॥ सेाक्ा कारण सब करे , रोजा बंग निमाज ॥ .. मवा न एके आह से ,जे तु साहिब सेती काज ॥9४:८ हर शेज हजरी हे।ह रह , काहे करे कलापई। मुन्ना तहीं पुकारिये ,जह अंरख*"इलाही आाप॥४६ हर दस हाजिर हाणाँ बाबा, जब लग जीवे बंदा । दाइम' दिल साई से साथित , पंच बखत का घंघा ॥8५ [दादू | हिंदू मारण फह हसारा, तुरक कह रह मेरी कहाँ पंथ है कहे! अलह छा, तुम ते ऐसी हेरी ॥४५॥ [दादू] दुईं दरेग'्लेग को झाजे, साहे सखाच पियारा। काण पंथ हम चल कही! थो , साथी करो विचारा ॥9९ खंड खंडि करि ब्रह्ज- को. , पर पखि*४ लीया बाँटि दाठहू पूर्ण बत्रह्म- ताज , जेंघे भरम की गाँठि ॥३८
१ द्याल पुरुष । ९ भोता। ३ पवित्र भगधंत ।४ माला के दाने। ५ माला धस्तान। ७ निमाज के पद्दिले मुसलमान हाथ मुँह धोते हैँ डसके घज़ घोलते हैं “& भाव यद्द कि रोज़ा,बाँग नमाज़ आदि कारचाई ऊपरी दिखावें की फरता है परनः - मलिक के मिलने को,विरद्द नहीं उठाता कि जिस से काम बेने। & शोक, दुज १० अशे > नघोँ आसम(न। ११ सदा, इमेशा । १२ राद। १६ भूठ। १७ पड़ी पंजड़ी
साच:को अंग जै$58
जीवतः दीसे.:- रोगिया ,:कह-सूर्वाँ -पीछ : जाई दादू दुँह . के पोढ़ मे , ऐसी द्वार ,लाइ.॥४९ से दारू किस काम- को ., जे। थे दुरदू न जादहु + दोद' काहे. रोग को , से दारु ले लाह:॥घ९॥ [दादू.] अनमे कादे रोग को, अनहंद् उपजे आह ॥(४-२०५) सेके का जल: निर्मला ; पोजे रुचि ल््यां लाइ ॥४३॥ सेह अनने साह ऊंपजी , साई सबद तत सार। सुणता हो साहिब मिले , मन के जोहिं बिकार ॥इश॥ ओपषद खाई न पछि रहें, बिषम व्याथि क्यों ज।ह। (१-१४१) शेंगी “ बावरा , दास बैद. को लाह ॥४५/ हा ._: ॥ पेट्ट होने का निषेदती .. “एक सेर का टॉबडा' , क्यों हो मस्या न जाह । भूख ने भागी जोजें की , दाद फेसा खाहु 7३६४) पसुर्वाँ की नाई भरिभरिखाइ; व्याधि घनेरी बधतीरे जाद। रास रसाइन भरि भरि पीवे ,दादू जेगी जुग जुग जीवे॥५श। दाद चारे४ चित दिया , चिंसामणि को घूलि। जन्म अमेाछिक जात है, बेठे माँकी फूल ॥४५॥ प्रो अचीोड़ीं भावदठी* , बेटा पेट फुलछाइह । दाहू..सूकर स्वांन ज्यों , ज्यों जावे यों खाइ ॥४९॥
१ इस साखी का भावार्थ यह है कि तुम जो अनेक इषट देवी देवताशों के बाँध रहे हो ओर उन से यह आस फरते हो कि घुए पीछे मुक्ति हो जायगी यद तुम्दारी भल है, भत्ता संसार रूपी पदाड़ (पाढ़) -का दाह (डुँहची) |्र यह छोटो छोटी दवाइयाँ (अर्थात इए) क्या काम दे सकती हैं, इस लिये ऐेसी भारी औषधी लेद जैला कि १२ वीं साखी में लिखा है।२ घश्तन। ३ बढ़ती । ४ चार या पशु
'घुल्प अहार में । ५ कच्चे चसड़े को भट्ठी यावी पेट ।
१४० साथ को अंग
[दादू] खाटा भीठा खाह करि, स्थादि चित दीया ।
इस मे जींव घिलंबिया , हरि नाँव न लीया ॥दणा भगत न जाणे शाम फी , इंद्री | के _आधघीन । दादू बंघ्या स्वाद सो , ता थे नाँव न छीनह ॥६१ .दाहू ]अपना नीका राखिये, से सेरा दिया बहाह। तुम्क अपणे सेती काज है , मे मेरा भाव सीघर जाइ ॥६२ जे हम जाण्या एक करि , तो काहे लेक रिसाहइ। मेश था से में लिया , लेगों का क्या जाहू ॥६१ 'दादू हैँ है पद किये , साखी भी द्वै चारि।
हझ्त कं | अनमे ऊपजी , हम ज्ञानी संसोरि ॥६४! सुनि सुनि पत्च ज्ञान के , साखी सबदी होड़ । तब हीं आपा ऊपजे , हम सा और न कोइ ॥६६ से! उपजी किस काम की , जे जण जण करे कलेस ' साखी सुनि समझे साथ की , ज्यों रसना रस सेस ॥६६। ([दादू ] पद जेड़े साखी कहै, बिषे न छाड़े जीव । पानी घालि बिलेइये , तो क्योँ कर निकसे घीव॥8५ [दांदू ] पद जोड़े क्या पाइये , खाखी कहे क्या होह । सत्ति सिरोमणि साइयाँ , तत्त न चीन्हा सेह शह६ः , फ़ह्िब्रे सुणिबे - मन खुसी , करिया औरे खेल । बातों तिसर न- माजह , दीवा बातो तेल एददर॥ [दादू | करिबे वाले हम नहीं, कहिबे कू हम सुर । कहिया हमर में निकट है 9 करिया हम जे दूर ॥७०। [दाढू | कहे कहे का हात है , कहे न सीफ्े काम । कहे कहे का पाइये ,ज़बलगरिदैन आबेराम॥०१॥